आदिकाल की साहित्यिक परिस्थितियाँ :
किसी
भी युग के साहित्य को समझने के लिए उसकी पृष्ठभूमि को जानना आवश्यक होता है।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा इसे 'आदिकाल'
नाम दिया गया है। यही नाम विद्वानों ने सर्वमान्य किया है। इस युग
के साहित्य में साहित्य के विविध रूपों का संयोजन होता है। आदिकाल साहित्य का वह
पहला काल है, जहाँ से हिंदी साहित्य की शुरुआत होती है। जब
भी कोई साहित्यकार साहित्य रचना करता है, तो उसके पीछे
तत्कालीन समय की तमाम परिवेशगत घटनाएँ एवं परिस्थितियाँ रहती हैं। साहित्य का
वातावरण शून्य में निर्मित नहीं होता। साहित्यिक रचनाओं के पीछे ऐतिहासिक शक्तियों
और सामाजिक संस्थाओं का महत्वपूर्ण योगदान रहता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने
साहित्य को जनता की चित्तवृत्तियों का प्रतिबिंब कहाँ है। इस तर्क के पीछे यही
धारणा निश्चित है कि प्रत्येक युग का साहित्य उसके समाज, धर्म
विचार, अर्थव्यवस्था, राजनीति आदि से
प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। यह सभी परिस्थितियाँ साहित्यिक रचना का आधार बनती
है। आदिकालीन साहित्य की साहित्यिक परिस्थितियाँ निम्नलिखित है
1)
साहित्य की तीन काव्यधाराएँ
आदिकालीन
साहित्य तीन काव्यधाराओं में विभाजित हैं। उस समय परंपरागत संस्कृत साहित्य की
धारा,
प्राकृत एवं अपभ्रंश साहित्य की धारा तथा हिंदी भाषा-साहित्य की
धारा-ये तीन धाराएँ प्रचलन में थीं। इस दृष्टि से आदिकालीन साहित्यिक परिस्थितियों
में साहित्य और भाषा के स्वरूप तथा स्थिति का विवेचन आवश्यक हो जाता है। जहाँ तक
प्रश्न है साहित्य का, नौवीं से ग्यारहवीं शताब्दी तक कन्नौज
और कश्मीर, संस्कृत साहित्य के मुख्य केंद्र रहे हैं।
दूसरी
तरफ प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं में उत्कृष्ट साहित्य का निर्माण हुआ हैं। जैन
आचार्यों ने मध्य प्रदेश के पश्चिमी तथा पूर्वी सीमांत क्षेत्र में रहकर सिद्धों
ने संस्कृत के पुराणों को नए रूप में प्रस्तुत करके उत्कृष्ट ग्रंथों का सृजन
किया। सिद्ध, नाथ कवियों अपभ्रंश के साथ लोक-भाषा हिंदी
को रचनाओं में प्रयुक्त कर रहे थे। तिसरी धारा चारण एवं भाट कवियों द्वारा रचित
वीर गाथात्मक काव्यों कि थी। जिसमें अपने आश्रयदाताओं के शौर्य का अतिरंजनापूर्ण
ढंग से वर्णन किया है। जिसके लिये लोक-भाषा हिंदी का प्रयोग किया हैं
2) राजाश्रित साहित्य
प्रारंभिक
काल में संस्कृत भाषा को राजकीय संरक्षण प्राप्त था। इसी काल में अनेक आचार्य, कवि, नाटककार और गद्य लेखक उत्पन्न हुए। जहाँ तक
साहित्य का प्रश्न है, कन्नौज और कश्मीर नौवीं से ग्यारहवीं
शताब्दी तक संस्कृत साहित्य के प्रमुख केंद्र रहे हैं। इस काल में आनंदवर्धन,
अभिनवगुप्त, कुंतक, क्षेमेंद्र,
भोजदेव, मम्मट, राजशेखर
और विश्वनाथ जैसे काव्याचार्य, शंकर, कुमारिलभट्ट,
भास्कर और रामानुज जैसे दार्शनिक तथा भवभूति, श्रीहर्ष
और जयदेव जैसे कवि और नाटककार एक साथ दिखाई देते हैं।
3. धार्मिक साहित्य
जैन
धर्म ने अपने धर्म प्रचार एवं प्रसार के साहित्य लिखा गया। मुख्यतः आदिकाल में
धार्मिक साहित्य प्राकृत तथा अपभ्रंश भाषा में लिखा गया साहित्य था। इस ग्रंथ में
संस्कृत को भी अपनाया गया। इस युग की अपभ्रंश भाषा में मिलने वाली अन्य प्रसिद्ध
कृतियों में 'संदेश रासक', 'भविष्यत्तकहा',
'पउमचरिउ' तथा 'परमात्मप्रकाश'
आदि भी उल्लेखनीय हैं। यहाँ एक तथ्य और ध्यान देने योग्य है कि
प्राकृत-अपभ्रंश भाषा के विभिन्न रूपों से ही आधुनिक भारतीय भाषाओं का जन्म हुआ
है। अपभ्रंश के परवर्ती विकास को तो 'अवहट्ठ' या 'पुरानी हिंदी' कहाँ जाता
है।स्वयंभू, पुष्पदंत तथा धनपाल जैसे जैन कवि अपनी रचनाओं
में प्राकृत अपभ्रंश तथा पुरानी हिंदी का मिश्रित रूप प्रस्तुत कर रहे थे। तो
सरहपा, शबरपा, लुइपा, कण्हपा और गोरखनाथ तथा गोपीचंद जैसे सिद्ध, नाथ कवि
अपभ्रंश के साथ लोक-भाषा हिंदी को रचनाओं में प्रयुक्त कर रहे थे। राजशेखर की 'कर्पूर-मंजरी', अमरूक का 'अमरू
शतक' तथा हाल की 'आर्या सप्तशती'
अपभ्रंश की उत्कृष्ट कृतियाँ बनीं। बौद्ध, सिद्ध,
जैन, संत और अनेक धर्म प्रवर्तक कवि आदिकाल
में उत्पन्न हुए।
4. रासो काव्य
आदिकाल
में रासो-काव्य की प्रचुरता दिखाई देती है। इसे वीरगाथा काव्य कहा जाता है। यह
काव्य वीर रस में लिखा जाता है। इन रचनाओं में कवियों द्वारा अपने आश्रयदाताओं के
शौर्य एवं ऐश्वर्य का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन किया गया है। यह साहित्य मुख्यतः चारण
कवियों द्वारा रचा गया हैं। इन रचनाओं में ऐतिहासिकता के साथ-साथ कवियों द्वारा
अपनी कल्पना का समावेश किया गया है। रचनाओं में युद्धप्रेम का वर्णन अधिक किया गया
है। इन रचनाओं में वीर रस एवं श्रृंगार रस की प्रधानता है। काव्य लेखन के लिए
डिंगल और पिंगल शैली का प्रयोग हुआ है। पृथ्वीराज रासो, विजयपाल रासो, हम्मीर रासो, खुमाण
रासो, बीसलदेव रासो तथा परमाल रासो आदि प्रमुख रचनाएँ रासो
काव्य की हैं।
5. श्रृंगारिक काव्य
आदिकाल
की रचनाओं में वीर रस व श्रृंगार रस की प्रधानता दिखाई देती है। चारण कवियों ने
वीर रस के साथ श्रृंगार रस का प्रयोग साहित्य में किया हैं। कवि विद्यापति ने
आदिकाल की प्रमुख धाराओं से हटकर रचनाएँ लिखी। विद्यापति दरबारी कवि होकर भी जन
कवि बने। विद्यापति श्रृंगार, बीर तथा भक्ति रस में
साहित्य लिखा। 'पदावली' में राधा-कृष्ण
की प्रणय लीलाओं का अत्यंत हृदयहारी वर्णन किया है। पदावली में श्रृंगार रस की
प्रधानता है। विद्यापति श्रृंगार रस के संयोग पक्ष के सफल गायक है और प्रेम के परम
पारखी। पदावली में नायक श्रीकृष्ण और नायिका राधा का मनोहारी चित्र खीचा है। उनके
बीच ईश्वरी भावना की अनुभूति नहीं मिलती। पदावली में विद्यापति ने राधा और
श्रीकृष्ण को नायक-नायिका के रुप में चित्रित कर के भक्ति भावना को श्रंगारिकता की
भावपर्ण धारा में प्रवाहित किया है।
6. मनोरंजनपरक साहित्य
अमीर
खुसरो ने साहित्य के लिए एक नवीन मार्ग का अन्वेषण किया था। जीवन को संग्राम और
आत्मशासन की सुदृढ़ और कठोर श्रृंखला से मुक्त करके आनंद और विनोद के स्वच्छंद
वायुमंडल में विहार करने की स्वतंत्रता देना। यही खुसरो की मौलिक विशेषता है। इनके
साहित्य में हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रथम प्रयत्न है, तथा उसमें भाषा संबंधी एकता का आदर्श भी उपस्थित किया गया है। आचार्य
श्यामसुंदरदास का कहना है कि खुसरो के पूर्ववर्ती साहित्य में राजकीय मनोवृत्ति है
उसे जन-साहित्य नहीं कहा जा सकता किंतु हम इनकी कविता में युग प्रवर्तक का आभास
पाते हैं। डॉ. रामकुमार वर्मा इनके काव्य का विवेचन करते हुए लिखते हैं-
"उसमें न तो हृदय की परिस्थितियों का चित्रण है और न कोई संदेश ही। वह केवल
मनोरंजन की सामग्री है। जीवन की गंभीरता से ऊबकर कोई भी व्यक्ति उससे विनोद पा
सकता है। पहेलियों, मुकरियों औरसुखनों के द्वारा उन्होंने
कौतूहल और विनोद की सृष्टि की है। कहीं-कहीं तो उस विनोद में अश्लीलता भी आ गई है।
उन्होंने दरबारी वातावरण में रहकर चलती हुई बोली से हास्य की सृष्टि करते हुए
हमारे हृदय को प्रसन्न करने की चेष्टा की है। खुसरो की कविता का उद्देश्य यहीं
समाप्त हो जाता है।"
निष्कर्ष
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