सखि, वे मुझसे
कहकर जाते - मैथिलीशरण गुप्त
'सखि वे मुझसे
कहकर जाते मैथिली शरण गुप्त लिखित एक चंपू काव्य है| जो मैथिलीशरण गुप्त के 'यशोधरा' इस
चम्पू काव्य से लिया है| इसमें
कवि ने गौतम बुद्ध की पत्नी के भावनाओं के माध्यम से स्त्री जाति के महत्व को
स्पष्ट किया है| भगवान गौतम बुद्ध बाल्यकाल से वीतराग
(राग-द्वेष, मोह और आसक्ति से रहित व्यक्ति)से प्रभावित होने
के कारण आगे अपनी पत्नी यशोधरा को बिना बताए ज्ञान प्राप्ति के लिए घर छोडकर चले जाते
है| यशोधरा को इस बात का दुख अवश्य है कि गौतम उसे बताकर
नहीं गये| परंतु इस कविता के माध्यम से वह यह बताना चाहती है
कि स्त्री पुरुष मार्ग की बाधा न होकर पुरुष मार्ग की शक्ति और उत्साह का स्त्रोत
है| अत: इस कविता का
मुख्य उद्देश्य स्त्री जाति के महत्व को स्पष्ट करना है| नारी के त्याग, धैर्य और अंतर्मन की भावनाओं को उजागर करना है।
यह कविता दिखाती है कि
युद्ध या कर्तव्यपालन के समय पुरुष जहाँ रणभूमि में जाकर वीरता दिखाते हैं,
वहीं स्त्रियाँ पीछे रहकर अपने प्रेम,
पीड़ा और वियोग को सहते हुए भी उन्हें
प्रोत्साहित करती हैं। कवि ने यह स्पष्ट किया है कि नारी केवल गृहिणी ही नहीं,
बल्कि धैर्य और करुणा की प्रतिमूर्ति है, जो अपने प्रियजन के लिए बलिदान भी सहन करती है।
यशोधरा के माध्यम से कवि ने इस प्रकार चित्रित किया है|
सखि, वे मुझसे
कहकर जाते,
कह, तो क्या
मुझको वे अपनी पथ-बाधा ही पाते?
मुझको बहुत उन्होंने माना फिर भी क्या पूरा पहचाना?
मैंने मुख्य उसी को जाना जो वे मन में लाते।
सखि, वे मुझसे
कहकर जाते।
संकलित अंश में सिद्धार्थ (गौतम बुद्ध) की
पत्नी अपने पति बिना बताए चुपचाप चले जाने पर अपनी सहेली के समक्ष अफसोस व दुख
व्यक्त कर रही है। अपने मन के उलझन को व्यक्त करती है| यशोधरा दुखी मन से अपनी सहेली से अपनी वेदना प्रकट करते हुए कहती है कि
उसके पति सिद्धि प्राप्त करने के लिए गए हैं- यह बहुत गौरव की बात है लेकिन बिना
बताए गए,यह अत्यंत दुखदायी है। यदि वे बताकर जाते तो क्या
यशोधरा उनके मार्ग की बाधा बनती ? (अर्थात वो बाधा नहीं
बनती)|आगे यशोधरा कहती है कि पति ने
उसे बहुत सम्मान दिया, लेकिन मेरे अंतर्मन की पूरी पहचान
शायद न कर पाए।वह खुश होकर वही करती,जो एक बार उनके पति के
मन में आ जाता| परंतु वे बिना बताकर गये है इसीलिये वह पुन:
अफसोस करती है|
स्वयं सुसज्जित करके क्षण में, प्रियतम को,
प्राणों के पण में, हमीं भेज देती हैं रण में - क्षात्र-धर्म के नाते।
सखि, वे मुझसे
कहकर जाते।
इस
अंश में यशोधरा अपनी सखी को अपने क्षत्राणी के धर्म का परिचय देते कहती है कि
आवश्यकता पड़ने पर वह अपने पति को प्राणों की बाजी लगाने हेतु स्वयं सुसज्जित कर
रणभूमि में भेज देती !
हुआ न यह भी भाग्य अभागा,
किसपर विफल गर्व अब जागा?
जिसने अपनाया था, त्यागा; रहे स्मरण ही आते!
सखि, वे मुझसे
कहकर जाते।
अब
तो वह अपने भाग्य को कोसती है कि वह गर्व भी किस पर करे कि जिसने अपनाया था,उसी ने त्याग दिया।अब तो केवल
स्मृतियां ही शेष हैं।
नयन उन्हें हैं निष्ठुर कहते,
पर इनसे जो आँसू बहते,
सदय हृदय वे कैसे सहते?
गये तरस ही खाते!
सखि, वे मुझसे
कहकर जाते।
यशोधरा
की आँखों से बहने वाले आँसू इन्हें निष्ठुर कहते हैं लेकिन वह जानती है कि वे इतने
दयालु हैं कि यशोधरा की आँखों में आँसू सहन नहीं कर सकते।यशोधरा को विश्वास है कि
उन्हें अवश्य उसकी
दशा पर तरस आता होगा। इतने दुखों के बावजूद वह अपने पति के प्रति सदभावनाओं से भरी
है।
जायें, सिद्धि
पावें वे सुख से,
दुखी न हों इस जन के दुख से,
उपालम्भ दूँ मैं किस मुख से?
आज अधिक वे भाते!
सखि, वे मुझसे
कहकर जाते।
वह
कामना करती है कि वे सुखपूर्वक उन सिद्धियों को प्राप्त करें, जिनके लिए उन्होंने गृहत्याग
किया था और यह भी चाहती है कि उस साधारण मनुष्य (यशोधरा) के दुख से वे दुखी न हों
।यशोधरा आज उनको उलाहना भी नहीं देना चाहती क्योंकि अपने
दिव्य गुणों के कारण वे उसे और अधिक भाने लगे हैं।
गये, लौट भी
वे आवेंगे,
कुछ अपूर्व-अनुपम लावेंगे,
रोते प्राण उन्हें पावेंगे,
पर क्या गाते-गाते?
सखि, वे मुझसे
कहकर जाते।
आशावादी
स्वर में यशोधरा अपनी सखी से कहती है कि वे गए हैं तो लौटेंगे भी और साथ में कुछ असाधारण उपलब्धियाँ लेकर
लौटेंगे। सवाल यही है कि क्या यशोधरा तब तक अपने प्राणों को विसर्जित होने से रोक
पाएगी अथवा रोते-रोते वह उनके स्वागत में गीत गा पाएगी? अन्तिम पंक्तियों में पुनः यशोधरा गौतम के बिना बताए चले जाने पर दुख
व्यक्त करती हैं।
इस
प्रकार सखि वे मुझसे कहकर जाते कविता में गुप्त जी ने एक बार फिर से नारी जीवन के
प्रति अपनी उदार व करुण दृष्टि का परिचय दिया है। यशोधरा के माध्यम से प्रकारान्तर
से कवि ने बताया है कि पुरुषों का गृह त्यागी होकर संन्यासी हो जाना स्त्रियों की
तुलना में काफी सरल है। परंतु जब वे पत्नी को परित्याग करते है यह बात उस पत्नी के
लिए इतनी आसन नहीं होती फिर भी अपने पति के ख़ुशी के लिए यह भी हंसते-हंसते सहन करती
है| अत: ऐसा त्याग केवल स्त्री ही कर सकती है इसका एहसास प्रस्तुत कविता में कर दिया
है|
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