अनुवाद का अर्थ एवं स्वरूप

SEC पेपर नं III 

अनुवाद सिद्धांत और स्वरूप 

पाठ्यक्रम 

इकाई I अनुवाद का स्वरूप 

1.1 अनुवाद का अर्थ एवं स्वरूप 

1.2 अनुवाद का महत्व 

1.3. अनुवादक के गुण 

1.4 अनुवाद के क्षेत्र 

इकाई II अनुवाद के प्रकार 

2.1 विषय के आधार पर : गद्यानुवाद , पद्यानुवाद 

2.2 साहित्यिक अनुवाद : काव्यानुवाद, नाट्यानुवाद 

2.3. साहित्येत्तर अनुवाद : प्रशासनिक, विधि 

2.4 अनुवाद की प्रकृति के आधार पर : सारानुवाद, छायानुवाद 

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प्रश्न पत्र का स्वरूप एवं अंक विभाजन 

प्रश्न 1 

प्रश्न 2 

प्रश्न 3 

अंतर्गत मूल्यांकन परीक्षा 

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इकाई I अनुवाद का स्वरूप  

 1.1 अनुवाद का अर्थ एवं स्वरूप:-        

        मानव समाज में भाषा विचारों, भावनाओं और ज्ञान के आदान–प्रदान का प्रमुख साधन है। किंतु संसार में भाषाओं की बहुलता होने के कारण एक भाषा बोलने वाला व्यक्ति दूसरी भाषा बोलने वाले की बात सीधे समझ नहीं पाता। इस संप्रेषण की दूरी को समाप्त करने का कार्य अनुवाद करता है। अनुवाद वह सेतु है जो विभिन्न भाषाओं, संस्कृतियों और समाजों को आपस में जोड़ता है। इसके माध्यम से न केवल साहित्य और विज्ञान का प्रसार संभव हुआ है, बल्कि अंतरराष्ट्रीय व्यापार, राजनीति, संस्कृति और शिक्षा को भी वैश्विक स्तर पर एक नई दिशा मिली है।अत: अनुवाद ज्ञान का एक व्यापक माध्यम बन गया है| उसकी व्यापकता को समझने के लिए पहले अनुवाद का अर्थ और स्वरूप समझ लेना आवश्यक है| 

अनुवाद का अर्थ:-

        अनुवाद को विभिन्न भाषाओं में विभिन्न शब्दों का प्रयोग किया जाता है | परंतु अनुवाद यह शब्द संस्कृत का है| इस दृष्टि से अनुवाद का जो अर्थ है वह निम्न रूप में देख सकते है-

1) अनुवाद का व्युत्पत्ति मूलक अर्थ:-

        अनुवाद शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है| जिसमें 'अनु' उपसर्ग है तो 'वद्' धातु है| इसमें 'अनु' का अर्थ है बाद में या पुन: या पीछे| 'वद्' का अर्थ कहना इसमें 'धत्र्' प्रत्यय लगने से वाद बनता है|  'वाद' का अर्थ कथन| अत: अनुवाद का अर्थ है 'किसी के कहे को कहना | 

           'शब्दार्थ चिंतामणी कोशग्रंथ' में 'अनुवाद ' शब्द की दो व्युत्पत्तियां दी गयी हैं-

अ) प्राप्तस्य पुन: कथनम् :- 'प्रथम कहे गये का अर्थ ग्रहण कर उसका पुन: कथानुवाद है|'

ब) ज्ञानार्थस्य प्रतिपादनम्:- किसी के द्वारा कहे गये को भली प्रकार समझकर उसका विन्यास अनुवाद है| 

        इन दो व्युप्तत्तियों में थोडी उलट फेर करके डॉ. रामचंद्र वर्मा शास्त्री ने एक नयी व्युपत्ति बनाई है वह इस प्रकार -

            'ज्ञानार्थस्य प्रतिपादनम्'|

    अनुवाद में प्रतिपादन अर्थात समर्थन अथवा खंडन आदि नहीं होता अपितु पुन: स्थापन होता है| इस रूप में 'प्रतिपादन' की अपेक्षा 'पुन: कथन प्रयोग अधिक उपयुक्त और समीचीन है| 

    इस परिभाषा के  अनुसार किसी के कथन के अर्थ को भली प्रकार समझ लेने  पर उसे तद्वत फिर से प्रस्तुत करने का नाम अनुवाद है| इस प्रकार से एक ही भाषा के क्लिष्ट प्रयोग की सरल प्रस्तुति भी अनुवाद कहलायेगी|

2) संस्कृत में अनुवाद शब्द का प्रयोग

        प्राचीन भारत में लिपि का विकास नहीं हुआ था और लिखने लिखाने की आज जैसी सुविधाएँ उपलब्ध नहीं थी। इसी कारण उस समय पठन पाठन मौखिक रूप से चलता था। उस समय शिष्य गुरु - मुख से उच्च्वरित पाठ को सुनकर और दुहरा कर स्मरण करने का अभ्यास करता था। वेद के लिए 'श्रुति' और शास्त्र के लिए 'स्मृति' प्रयोगों का प्रचलन इसी बात का प्रतीक है। डॉ. भोलानाथ तिवारी के अनुसार, 'प्राचीन भारत में शिक्षा की मौलिक परंपरा थी। गुरु जो कहते थे, शिष्य उसे दुहराते थे। इस दुहराने को भी 'अनुवाद' या 'अनुवचन' कहते थे। दोबारा कहने के अर्थ में 'अनुवाद' शब्द का प्रयोग कुछ अन्य प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में भी हुआ है, यथा

'अन्वेको वती यद्ददति'                            (ऋग्वेद, 2.1.33)

'यद वाचि प्रोदितायाम् अनुबूवाद अन्यस्यैवैनम् उदितानु - वादिनम - कुर्यात 

(ऐतरेय ब्राह्मण, 2.1.5)

'कालानुवाद परीत्य     (यास्क रचित निरुक्त, 12.13)

आवृत्तिरनुवादा वा|  (भृर्तृहरि, 2.1.15)

'अनुवादे चरणानाम्'  (पाणिनि, 2.4.3)

'विद्यर्थवादानुवाद वचन 

निर्धारित स्थानों का अनुवाद विनियोगात| 

विधिविहितस्थानुवचनमनुवाद:||  (न्याय सूत्र, 2.1.62)

'प्रयोजनवान् पुन: कथन अनुवाद'| (वास्यायन भाष्य)

'ज्ञातस्य कथनमनुवाद' (जैमिनी न्यायमाला, 1.4.6)

        भक्ति काव्य में 'गुणानुवाद' का प्रयोग गुणों के बार-बार कथन के लिए हुआ है। वहाँ भी 'अनुवाद' के इसी अर्थ की ओर संकेत है। गोस्वामी तुलसीदास ने भी 'रामचरित मानस' में अनुवाद का इसी अर्थ में प्रयोग किया है 'सुनत फिरऊं हरि गुण अनुवादा।'

    उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि संस्कृत के प्राचीन साहित्य में अनुवाद शब्द का प्रयोग अवश्य मिलता है, परंतु उसका अर्थ पीछे कहना (गुरु के कथन का शिष्य द्वारा दुहराना), फिर से कहना (पुनःकथन) तथा समझकर कहना (ज्ञात अर्थ का कथन) आदि है। चौदहवीं शताब्दी में जब दर्शन, ज्योतिष, वैद्यक, काव्य आदि संबंधी संस्कृत ग्रंथों के 'भाषांतर' होने लगे तो उन्हें भाषा टीका कहा जाने लगा। ये टीकाएँ भी संस्कृत में लिखित भाष्यों की तरह व्याख्यात्मक होती थी, जो भाषानुवाद के अधिक निकट थी, भाषांतर के निकट कम। आज के प्रचलित अर्थ में 'अनुवाद' बिलकुल ही नहीं थी। बाद में इन भाषा टीकाओं को ही 'भाषानुवाद' की संज्ञा दी जाने लगी, अर्थात् भाषा में अनुवाद।

3) हिंदी में अनुवाद शब्द का प्रयोग    

        संस्कृत में अनुवाद शब्द के प्रयोग की परंपरा प्राचीन होते हुए भी हिंदी में इस शब्द का प्रयोग बहुत बाद में हुआ। हिंदी में अनुवाद के लिए निम्नलिखित शब्द प्रयुक्त होते थे-छाया. टीका, उल्था, तरजुमा और भाषानुवाद आदि।

        संस्कृत के नाटकों में जहाँ उच्च. वर्ग के पुरुष पात्र संस्कृत का उच्चारण करते हैं, वहाँ निम्नवर्ग के पुरुषपात्र तथा सभी स्तर के स्त्री पात्र प्राकृत, अपभ्रंश आदि भाषाओं का उच्चारण करते हैं। प्राकृत अपभ्रंश भाषाओं से अपरिचित पाठकों के लिए इन भाषाओं के वक्तव्यों का संस्कृत में अनुवाद देने की प्रथा रही है और इस अनुवाद के लिए 'छाया' शब्द प्रचलित रहा है। छाया शब्द के प्रयोग के औचित्य के पीछे कदाचित यही मान्यता रही होगी कि यह अनुवाद शब्दानुवाद न होकर भावानुवाद ही होता था।

    संस्कृत के उपयोगी ग्रंथों के हिंदी रूपांतरण को 'टीका' अथवा 'भाषा-टीका' नाम देने की भी प्रथा रही है। भाषा का अर्थ साधारण बोलचाल की भाषा और टीका का अर्थ अनुवाद ही था। यही कारण है कि एक ही विषय के लिए 'टीका', 'भाषा-टीका' तथा 'भाषानुवाद' आदि शब्दों का प्रयोग मिलता है।

    भारतेन्दु युग से पूर्व हिंदी गद्य लेखकों में पं. रामप्रसाद निरंजनी और पं. दौलतराम जैन आदि ने अपने ग्रंथों - भाषा योगवासिष्ठ और जैन पद्म पुराण को मूल संस्कृत रचनाओं का उल्था ही कहा है।

    भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने 'रत्नावली' नाटक की भूमिका में अनुवाद के लिए 'तरजुमा' शब्द का प्रयोग किया है -

    'नाटकों का तरजुमा प्रकाशित होता जायेगा।' उन्होंने संस्कृत से हिंदी रूपांतरण के लिए अनुवाद शब्द का प्रयोग भी किया है -

'मुद्राराक्षस का जब मैंने अनुवाद किया।' (भारतेन्दु ग्रंथावली, भाग-2)

    उपर्युक्त तथ्यों से भाषानुवाद से संक्षिप्त रूप लेकर अनुवाद शब्द के प्रचलित होने अथवा बंगला से इस शब्द के हिंदी में आने की संभावना से भी इन्कार नहीं किया जा सकता। क्योंकि प्राप्त प्रमाणों के अनुसार बंगला में व्यवस्थित अनुवादों की परंपरा हिंदी से कही अधिक पुरानी है। भारतेन्दु के समय से हिंदी में भी अनवरत अनुवाद कार्य चल रहा है। अन्य भारतीय भाषाओं में भी उन्निसवीं तथा बीसीं सदियों के दौरान व्यवस्थित रूप से अनुवाद किये जा रहे है। किंतु स्फुट विचारों को छोडकर अनुवाद के सिद्धांत पक्ष पर कोई भी व्यवस्थित, विशद तथा मौलिक चिंतन नहीं किया गया।

4) अंग्रेजी में अनुवाद शब्द का प्रयोग

    समकालीन अर्थ में 'अनुवाद' अंग्रेजी के ट्रांसलेशन (Translation) के समकक्ष प्रयुक्त होता है। यह शब्द लैटिन के ट्रांसलेटम(Translatum)  से आया है। ट्रांस (Trans) का अर्थ है थ्रू(Through) उसपार या दूसरी ओर तथा लेटम(latum) का अर्थ है टू कैरी(To carry)  ले जाना। इस तरह ट्रांसलेशन (Translation) का अर्थ हुआ दूसरी ओर ले जाना। इसका व्युत्पत्तिमूलक अर्थ हैं पारवहन - एक स्थान बिंदु से दूसरे स्थान बिंदु पर ले जाना। ऑक्सफोर्ड अंग्रेजी शब्दकोश में इसका मुख्य अर्थ इस प्रकार दिया है

Translate - Express the sense of (Word, Sentence, book) in pr into another language (as translated Homer into English form the Greek.)  

'ट्रान्सलेट' शब्द लाक्षणिक व्यापार से अन्य कई अर्थों में भी प्रयुक्त होता है। मगर हमारा मतलब मुख्य शब्दार्थ से है।

6) परिभाषाओं के रूप में अनुवाद का अर्थ:-

        अनुवाद को अनेक विद्वानों ने परिभाषित करने का प्रयास किया हैं परंतु यहां अध्ययन सुविधा की दृष्टि से केवल दो परिभाषाएं दी है| वह इस प्रकार - 

1) सैम्युअल :-

    " To Translate is to change into another language the sense."

    अर्थात अनुवाद मूल भावों की रक्षा करते हुए उसे दूसरी भाषा में बदल देना है|| 

2) डॉ. भोलानाथ तिवारी: "भाषा ध्वन्यात्मक प्रतीकों की व्यवस्था है और अनुवाद है इन्हीं प्रतीकों का प्रतिस्थापन, अर्थात एक भाषा के प्रतीकों के स्थान पर दूसरी भाषा के निकटतम (कथनतः और कथ्यतः) समतुल्य और सहज प्रतीकों का प्रयोग। इस प्रकार अनुवाद 'निकटतम, समतुल्य और सहज प्रतिप्रतीकन है।" (अनुवाद विज्ञान)

        इन परिभाषाओं के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि ' किसी एक भाषा में अभिव्यक्त विचारों को यथा संभव तद्वत, अथवा निकटतम रूप में दूसरी भाषा में सहज भाव से प्रस्तुत करने की चेष्टा अनुवाद है|  

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अनुवाद का स्वरूप 

            अनुवाद का स्वरूप तय करना बडी कठिन बात है| एक भाषा में कहीं गई बात कथन शैली और कथ्य इन दोनों के साथ दूसरी भाषा में शत प्रतिशत उतारना वाकइ संभव नहीं होता अनुवाद करते समय मानकर चलना होता है कि कथन और कथ्य में किंचित ही सही पर अंतर आ सकता है। इस स्थिति में संपूर्ण समतुल्यता या यथावत अभिव्यक्ति अत्यंत मुश्किल बात है । अनुवाद को शायद इसीलिए एक दुरूह कार्य माना गया है। अनुवाद सफल तभी माना जाता है जब अनुवाद के पाठक अनूदित सामग्री पढ़कर, वही अर्थ ग्रहण करें जो स्रोतमाषा में स्थित सामग्री को पढ़कर स्रोतभाषा-भाषियों ने ग्रहण किया है। अर्थ या कथ्य का अंतरण उतना सरल नहीं होता जितना सरल लगता है। इसका कारण यह है कि अनुवाद की संकल्पना के साथ ही दो भाषाएँ जुड़ी हुई होती हैं। प्रत्येक भाषा की अपनी प्रकृति और प्रवृत्ति होती है। प्रत्येक भाषा की अपनी ध्वन्यात्मक, रूपात्मक (पदात्मक), शब्दात्मक, वाक्यात्मक प्रकृति होती है। भाषा के साथ ही सामाजिक-सांस्कृतिक पक्ष भी जुड़ा हुआ होता है। इन सारी विशेषताओं के साथ स्रोतभाषा में विद्यमान सामग्री का लक्ष्यभाषा में अंतरित होना लगभग असंभव है।

        इस विवेचन का उद्देश्य यह बताना है कि अनुवाद का स्वरूप संक्षेप में स्पष्ट नहीं किया जा सकता। उसका स्वरूप जानने के लिए उन बातों का अध्ययन करना आवश्यक है जो अनुवाद के स्वरूप का निर्धारण करती हैं । यह बातें अर्थ या कथ्य, शैली, संप्रेषण आदि में समतुल्यता का निर्धारण करती हैं। दूसरे शब्दों में, समतुल्यता अनुवाद का स्वरूप निर्धारण करती है। यह समतुल्यता अर्थ, शैली आदि में आवश्यक है ।

इन्हीं बातों को ध्यान में रखकर भाषाविद् नायड़ा ने अनुवाद के मुख्यतः तीन स्वरूप बताए हैं । -

१) शाब्दिक अनुवाद, २) भावानुवाद, ३) पर्याय के आधार पर अनुवाद । प्रस्तुत है, अनुवाद के तीन रूपों का संक्षेप में विवेचन ।

१) शाब्दिक अनुवाद : 

        नायड़ा द्वारा बताया गया अनुवाद का यह पहला स्वरूप है । ध्यान रखें, इसमें शब्द के स्थान पर शब्द का प्रयोग नहीं किया जाता न ही शब्द-शब्द अनुवाद किया जाता है। शाब्दिक अनुवाद से नायड़ा का तात्पर्य एक भाषा के शब्द को दूसरी भाषा के शब्दों में बदल देना नहीं था वरन् स्रोतभाषा के व्याकरणिक रूप के स्थान पर लक्ष्यभाषा के व्याकरणिक रूप को रख देना था । पारिभाषिक शब्दावली के विषय में शाब्दिक अनुवाद का अपना महत्व होता है। विधि के क्षेत्र का अनुवाद हो या वैज्ञानिक क्षेत्र का अनुवाद हो, अनुवाद का यह स्वरूप, शाब्दिक अनुवाद विशेष महत्व रखता है।

    शाब्दिक अनुवाद की अनिवार्य शर्त 'उचित शब्द भंडार और उसका निर्माण' है। दूसरी शर्त इस 'शब्द भंडार का संग्रह' है.। संसार के कई देश ऐसे हो सकते हैं जहाँ विशिष्ट क्षेत्र से संबंधित शब्द भंडार का अभाव हो ।उदाहरणार्थ किसी देश में विज्ञानता प्रौद्योगिकी का उद्भव और विकास दूसरी भाषा के माध्यम से ही हुआ है तो वहाँ पर विज्ञान और प्रौद्योगिकी से संबंधित उसका अपना शब्द भंडार उपलब्ध होगा ही नहीं। ऐसी स्थिति में शाब्दिक अनुवाद भला किस प्रकार किया जाए ? इस प्रश्न का सीधा सरल उत्तर यह है कि इस स्थिति में वह भाषा (जिसमें योग्य शब्द भंडार उपलब्ध नहीं है) स्रोतभाषा के ही शब्दों को थोड़े-बहुत परिवर्तन, परिवर्धन या संशोधन के साथ स्वीकार लें। वह भाषा स्रोतभाषा के शब्दों को बिलकुल यथावत भी स्वीकार सकती है। इस प्रकार का लचीलापन शाब्दिक अनुवाद के लिए आवश्यक है। विशुद्धता की जिद भाषा का नुकसान कर जाती है। इससे बचना अभीष्ट रहेगा । शाब्दिक अनुवाद करते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वह हास्यास्पद न हों। जैसे-

Prime minister Manmohan Singh will release piegons to make the occassion.   

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इस अवसर पर कबूतर उड़ाएंगे।

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इस अवसर पर कबूतरों का विमोचन करेंगे । इस प्रकार का शाब्दिक अनुवाद हास्यास्पद ही बन जायेगा। इस अंग्रेजी वाक्य का अनुवाद इस प्रकार किया जाना चाहिए -

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इस अवसर पर कबूतर उड़ाकर उद्घाटन करेंगे।

    ठीक इसी तरह स्रोतभाषा के शब्दों को सही ढंग से लक्ष्यभाषा में अवतरित कर दिया जाना चाहिए। जैसे Blind galley  का अनुवाद 'अंधी गली' नहीं बल्कि 'बंद गली' किया जाना चाहिए। Properly exploited  का अनुवाद 'उचित शोषण' नहीं बल्कि 'उचित दोहन' करना होगा । Two meals a day  का अनुवाद 'एक दिन में दो भोजन' नहीं बल्कि दो वक्त का खाना' किया जाना चाहिए ।

कहने का तात्पर्य यह कि अनुवादक शाब्दिक अनुवाद करते समय लक्ष्यभाषा में विपुल शब्द भंडार का संग्रह करके रखें या फिर स्रोतभाषा के ही शब्दों को थोड़े-बहुत बदलाव के साथ स्वीकार लें। स्रोतभाषा के शब्दों का यथावत प्रयोग करने में कोई हर्ज नहीं है लेकिन अनुवादक को यह ध्यान रखना चाहिए कि इससे अनुवाद हास्यास्पद न बनें ।

    अनुवाद की इतने वर्षों की परंपरा में कुछ शब्द तो ऐसे हैं जिनके अनुवादक तक निश्चित हो चुके हैं। जैसे Railway train  का अनुवाद 'कल की गाड़ी की अपेक्षा 'रेलगाड़ी' निश्चित हो चुका है। Engine  का अनुवाद 'धुआँकस' की अपेक्षा 'इंजन' निश्चित हो चुका है। Critic जैसा शब्द 'गुणदोष विवेचक' की अपेक्षा 'आलोचक' का अर्थ ही प्रदान करता है ।

शाब्दिक अनुवाद के तहत कुछ शब्द अंग्रेजी से हिंदी में आए और हिंदीके ही होकर रह गए। लेकिन ऐसा कतई नहीं कि यह सिर्फ हिंदी के ही साथ हुआ । हिंदी के कई ऐसे शब्द हैं, पद हैं जो शाब्दिक अनुवाद के रूप में अंग्रेजी में चले गए और प्रचलित हो गए। इनमें से कई शब्द ऐसे हैं जो आज अंग्रेजी में विद्यमान होकर भी भारतीय संस्कृति का परिचय देते हैं । जैसे - पत्तल-डाइनिंग लीफ, तिलक - फोरहेड मार्क, गोधूलि काउडस्ट ऑवर, रथ-यात्रा - कार फेस्टिवल, यज्ञोपवीत सेक्रेड थ्रेड आदि ।

२) भावानुवाद : 

    नायडा का बताया अनुवाद का यह द्वितीय स्वरूप अत्यधिक महत्वपूर्ण है। संसार का प्रत्येक प्राणी अपने आप को अभिव्यक्त करने के लिए भावों का प्रयोग करता है। भावों द्वारा ही स्वयं को अभिव्यक्त करता है। मनुष्य भी भावों द्वारा ही अपने आपको अभिव्यक्त करता है। मनुष्य के पास भाषा के रूप में ऐसी विशिष्ट वस्तु विद्यमान है जिसके द्वारा वह अपने भाव या विचारों को अभिव्यक्त करता है। भाषा में स्थित शब्द उसके भावों के वाहक होते हैं। स्पष्ट है, मनुष्य अपने भावों को अभिव्यक्त करने के लिए शब्दों का प्रयोग करता है। हम कह सकते हैं शब्दों से अधिक महत्वपूर्ण भाव होते हैं। अतः अनुवाद करते समय शब्दों से भी अधिक भावों का ध्यान रखना आवश्यक है । अनुवादक एकबारगी उस शब्द का अस्तित्व भूल जाए तो भी चल सकता है लेकिन उसे भावों का अस्तित्व कदापि नहीं भूलना चाहिए । शब्द में निहित भाव का ध्यान रखना उसके लिए अनिवार्य है। लेकिन केवल इतना काफी नहीं। उसे देखना चाहिए कि स्रोतभाषा-भाषी उस शब्द के लिए और कौन-सा शब्द प्रयोग में ला सकता था। दूसरी बात यह कि वह भूलकर भी अनुवाद करते हुए व्यक्तिगत दृष्टि से शब्दों के विश्लेषण में न उलझ जाए । स्रोतभाषा की अभिव्यक्तियों को लक्ष्यभाषा में रूपांतरित करते समय एक सक्षम अनुवादक इस बात का ध्यान रखता है कि उसके रूपातंरण से लक्ष्यभाषा का सौंदर्य बढ़ जाए। लक्ष्यभाषा की अभिव्यंजना शक्ति में बढ़ोतरी हो ।

        भावानुवाद में भावों की अहमियत शब्दों के मुकाबले कहीं अधिक होती है। कई बार मूल भाषा के शब्द के कई अर्थ हो सकते हैं तो कई बार लक्ष्यभाषा में किसी शब्द के विभिन्न अनुवाद हो सकते हैं। अनुवादक को अनुवाद करते समय इन बातों का ध्यान रखना चाहिए। उदाहरण के लिए अंग्रेजी का. शब्द 'चार्ज' ले लीजिए। यह शब्द अनगिनत अर्थछटाएँ लिए हुए है। हिंदी में इस शब्द के कई अनुवाद हो सकते हैं। जैसे भार, प्रभार, भारसाधन, आरोप, आरोपित करना, प्रभारित करना, भरण (बैटरी वगैरा) चार्ज करना आदि । भाव के साथ स्वाभाविक रूप से क्रिया भी बदलेगी ही ।

    भावानुवाद करते समय महत्वपूर्ण बात यह है कि अनुवादक अपनी मौलिकता का प्रयोग करें। इससे अनूदित कृति असहज होने की अपेक्षा सहज,स्वाभाविक और रोचक बन जाएगी। मौलिकता का प्रयोग करने वाला अनुवादक श्रेष्ठ अनुवादक कहलाता है। लेकिन इसमें भी एक खतरा है। अनुवादक अपनी मौलिकता की अति न करें। भावानुवाद करते समय कई बार अनुवादक पूरी तरह मूलमुक्त अनुवाद करने लगता है। इसी कोशिश में वह इतनी स्वच्छंदता बरतता है कि अनुवाद, अनुवाद नहीं बल्कि मौलिक कृति बन जाता है। कई बार अनुवादक अपने विचारों और लेखन क्षमता से पाठकों को प्रभावित करने का प्रयास करने लगता है और इसी चक्कर में भूल जाता है कि वह अनुवाद कर रहा है, मौलिक लेखन नहीं ।

    अनुवाद का स्वरूप कोई भी हो, अनुवाद चाहे किसी भी प्रकार का हो, अनुवादक को मूल से कभी हटना नहीं चाहिए। उसका अनुवाद हमेशा मूल को छूता या मूल को छूने का प्रयास करता हुआ प्रतीत होना चाहिए । शब्द को नहीं बल्कि भाव को लेकर अनुवाद कर देना चाहिए ।

उदाहरणार्थ - 'Glod' शब्द का अर्थ है 'सोना' और 'Golden' शब्द काअर्थ है- 'सुनहला' । लेकिन प्रयोग के साथ इनमें स्थित भावार्थ बदलता रहता है अतः अनुवाद करते समय 'सोना' या 'सुनहला' को ही पकड़कर रखना उचित नहीं होगा । स्वाभाविक ही है, भावानुसार इनके अनुवाद भी भिन्न-भिन्न ही होंगे। जैसे -

Golden Jublee               स्वर्ण जयंती

Golden Period              स्वर्णयुग या सतयुग

Golden Chance            सुनहरा अवसर

Golden Success           शानदार सफलता

        'पीअर्स' साबुन के विज्ञापन में साबुन की विशेषताएँ 'प्युअर एंड जंटल' कहकर अधोरेखित की गई हैं। इन दो शब्दों का महत्व अत्यधिक है। इनका हिंदी अनुवाद 'शुद्ध एवं सभ्य' निश्चित रूप से अयोग्य सिद्ध होगा। इसका अनुवाद 'शुद्ध और सौम्य' के रूप में किया गया है जो बिलकुल योग्य है ।

        हिंदी में कई ऐसे उदाहरण हैं जो अंग्रेजी के शब्दों के कोरे अनुवाद मात्र हैं। ऐसे शब्द पाठक पर विशेष प्रभाव डालने में असमर्थ सिद्ध होते हैं। अतः उनका भावानुवाद ही प्रचलित किया जाने लगा है। यह भावानुवाद सटीक तो है ही पाठकों पर भरपूर प्रभाव भी डालता है ।

मूल शब्द                           शब्दानुवाद                  भावनुवाद 

White                            सफ़ेद चींटी                      दीमक

Hunger Strike                भूख हड़ताल                    अनशन 

Precious stone               कीमती पत्थर                    जवाहरात 

स्पष्ट है, योग्य भावानुवाद पाठकों के मन-मस्तिष्क पर गहर प्रभाव डाल सकता है ।

३) पर्याय के आधार पर अनुवाद:

     भाषा में प्रत्येक शब्द का महत्व होता है। प्रत्येक शब्द की अपनी अर्थवत्ता होती है। अपनी बात कहने के लिए शब्दों का सहारा लेनेवाला मूल लेखक भावों के प्रभाव को वृद्धिगत करने के लिए कई शब्दों में से किसी एक सटीक शब्द का चयन करता है। लेखन में इस चयन का महत्व वर्णनातीत है। मूल लेखक की ही भाँति अनुवादक भी भावों और प्रभावों की सटीकता के लिए कई विकल्पों में से एक विकल्प चुनता है। यह चयन ध्वनि, रूप, शब्द, समास, पदबंध, वाक्य आदि कई स्तरों पर किया जा सकता है। चयन के कई आधार हो सकते हैं। अनुवादक को ध्यान में रखना चाहिए कि प्रत्येक शब्द अपने आप में प्रचंड अर्थवत्ता लिये हुए होता है । उसके समानार्थी शब्दों की अर्थवत्ता ठीक वही हो इस बात की संभावना कम ही होती है। जैसे 'भय' शब्द है। इसके लिए 'डर', 'भीति' जैसे विकल्प विद्यमान हैं लेकिन प्रत्येक शब्द की अर्थवत्ता में थोड़ा-बहुत अंतर है। 'भय' शब्द अर्थवत्ता के स्तर पर बहुत व्यापक है। इसके कई आयाम हैं। किसी भीषण संकट की आशंका, उससे सहीसलामत बचने की इच्छा, इस बात को लेकर विवशता यह सारी बातें 'भय' में समायी हुई हैं। 'भीति' का प्रयोग हिंदी में यूँ भी कम हुआ करता है और यह शब्द 'भय' की विशालता का आभास नहीं देता । इस शब्द का प्रयोग 'स्त्रीलिंग' के साथ होता है। जिसके कारण यह लघुता का आभास ही अधिक मात्रा में देता है। 'डर' शब्द अपने आप में हल्कापन लिये हुए है। कहने का तात्पर्य यह कि 'भय' के समकक्ष नहीं माना जा सकता । 'आतंक' आवश्यकता से अधिक भारीपन लिये हुए है। कहने का 'तात्पर्य यह कि 'भय' शब्द का चयन करते समय मूल लेखक ने भीति, डर, आतंक जैसे शब्दों की तुलना में 'भय' को ही सर्वाधिक सटीक महसूस किया होगा। अनुवादक को चाहिए कि वह इसी सटीकता के लिए प्रयत्नशील रहे। उसके सामने भी मूल लेखक की भाँति कई विकल्प विद्यमान होते हैं। इनमें से सोच समझकर पर्याय-चयन करना अनुवादक के लिए किसी परीक्षा से कम नहीं होता ।

        शाब्दिक अनुवाद, भावानुवाद और पर्याय के आधार पर अनुवाद नायडा द्वारा बताए गए अनुवाद के तीन मुख्य स्वरूप हैं। लेकिन अनुवाद का स्वरूप केवल इतना ही नहीं है। अनुवाद के कुछ अन्य रूप इस प्रकार बताए जा सकते हैं -

4) सारानुवाद :- 

        सरकारी रिपोर्ट, लोकसभा का कामकाज, न्यायालय के निर्णय जैसी सामग्री का प्रायः सारानुवाद किया जाता है। इसे कई बार 'जिस्टट्रांसलेशन' की संज्ञा दी जाती है। इस प्रकार के अनुवाद में मूल कृति का सार मात्र प्रस्तुत किया जाता है। वस्तुतः यह भी शब्दानुवाद का एक प्रकार ही है।

5) टीकानुवाद : 

        अनुवाद का यह रूप भारत में प्राचीन काल से प्रयुक्त होता रहा है। भारत में, प्राचीन काल में अनुवाद के लिए टीका, भाष्य, उल्था, व्याख्या जैसा शब्द प्रचलित थे । यह पद्धति भारत की अधिकांश भाषाओं में उपलब्ध है । अरस्तू के 'काव्यशास्त्र', लोंजाइनस के 'पेरिइप्सुस' के अंग्रेजी तथा हिंदी भाषा में किए गए अनुवाद इसी कोटि में आते हैं। आधुनिक काल में भी 'गीता' पर लोकमान्य तिलक और विनोबा भावे का किया हुआ भाष्य या टीका प्रसिद्ध है । बाइबिल के इसी प्रकार अनगिनत टीकानुवाद हुए हैं ।

        अनुवाद का स्वरूप एक व्यापक विषय है छायानुवाद, रूपांतरण, भाषांतरण आदि भी अनुवाद के विभिन्न स्वरूप ही हैं। अनुवाद अर्थ का संप्रेषण है, अनुवाद सांस्कृतिक संदर्भों का संप्रेषण है, अनुवाद, संभव हो तो, शैली का संप्रेषण है। अनुवाद का स्वरूप काफी जटिल है। स्पष्ट है, यह एक ऐसा कठिन कार्य है जो जटिलता से भरपूर है।

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1.2 अनुवाद का महत्व 
        
            अनुवाद का महत्व बहुआयामी और अत्यंत व्यापक है। यह न केवल भाषाओं को जोड़ता है, बल्कि संस्कृतियों, ज्ञान और विचारों के आदान-प्रदान के लिए भी एक मजबूत सेतु का काम करता है। कारण अनुवाद किसी एक भाषा में अभिव्यक्त विचारों को दूसरी भाषा में ठीक उसी रूप में रूपांतरित प्रस्तुत करना अनुवाद कहलाता है| इस दृष्टि से अनुवाद विश्व स्तर तक पहुंचने का एवं उसे जोडने का सशक्त माध्यम है| जिसके चलते अनुवाद का अत्यंत व्यापक महत्व है| 
1) बहुभाषिक लोगों को जोडनेवाला सेतु :-
        यह विश्व में अनेक भाषाएं बोली जाती है| अपनी भाषा छोडकर दूसरी भाषा के व्यक्ति के साथ बातचीत करते वक्त उस भाषा में अनुवाद सहजता से किया जाता है| अत: बातचीत के क्षेत्र में अनुवाद बहुभाषिक लोगों को  जोडता है| 
2) कार्यालयीन पत्राचार का सेतु :-
    व्यापार, कार्यालय, न्यायालय आदि विभिन्न क्षेत्रों में पत्राचार होता है| एक तो ये पत्राचार अंग्रेजी भाषा में या उस देश की राजभाषा में होता है| तब  अनुवाद इन पत्राचारों का सेतु बन जाता है|  |
3) ज्ञान -विज्ञान की प्रगति का सेतु  :-
    विज्ञान ने जहां तक विश्व को समेटकर छोटा बना दिया है, वहां अनुवाद की महत्ता उसी अनुपात में बढी है| कारण संसार के किसी एक देश में हुई ज्ञान - विज्ञान की प्रगति की जानकारी अनुवाद कीमाध्यम से ही दूसरे देशों तक पहुंचाई जा सकती है| आज न तो कोई देश दूसरे देशों से अलग-थलग रह सकता है और न अकेला | सभी क्षेत्रो में अग्रणी होने तथा अप्रतिम प्रगति करने का दावा कर सकते है| इस प्रकार एक देश के ज्ञान विज्ञान को अनुवाद के माध्यम से ही दूसरे देशों में पहुंचा कर सभी सभी लोगों को एक साथ लाभान्वित किया जा सकता है| इस प्रकार एक देश को दूसरे देश के समीप लाने में सेतु काम करता है| 
4) विभिन्न भाषाओं का ज्ञान तथा सांस्कृतिक सेतु : - 
        विश्व में सह्स्त्रों की संख्या में अनेक भाषाएं प्रयुक्त होती हैं, इनमें बहुत-सी भाषाओं में समृद्ध साहित्यिक, सांस्कृतिक और वैज्ञानिक सामग्री उपलब्ध हैं| किसी एक व्यक्ति द्वारा सभी भाषाओं को सिखना न तो संभव है और न ही वांछनीय| अनुवाद द्वारा इस समस्या का समाधान हो जाता है| अनुवाद विभिन्न भाषाओं के संस्कृतियों, परंपराओं, लोकाचारों और जीवन-शैलियों को एक-दूसरे के निकट लाता है। जिसके पडोसी देशों से सांस्कृतिक संबंध दृढ हो सकते है | अत: पडोसी देशों से सांस्कृतिक संबंध दृढ करने की लिए अनुवाद परम आवश्यक है| इसके साथ आज विश्व बंधुत्व की भावना बल पकड रही है| यह भावना अनुवाद का कारण और अधिक सफल हो गयी है| 
5)  ज्ञान के  प्रसार हेतु :
         शिक्षा और अनुसंधान के क्षेत्र में इसका महत्व बहुत अधिक है। दुनिया के किसी भी कोने में हुए वैज्ञानिक, तकनीकी या अकादमिक शोध को अनुवाद के माध्यम से ही अन्य भाषा-भाषी समुदायों तक तुरंत पहुँचाया जा सकता है। अनुवाद यह सुनिश्चित करता है कि नवीनतम जानकारी और ज्ञान केवल एक भाषा तक सीमित न रहे।अत: अनुवाद किए बिना ज्ञान का क्षेत्र विस्तृत नहीं हो सकता|आधुनिक युग में विज्ञान, समाज विज्ञान, साहित्य आदि अनेक विषय सीखे और सिखाये जाते है| इनके अनेक श्रेष्ठ ग्रंथ अंग्रेजी के साथ-साथ अन्य विदेशी भाषाओं में भी उपलब्ध है| अत: उनका अनुवाद किए बिना ज्ञान का क्षेत्र विकसित नहीं हो सकता|  

6. अंतर्राष्ट्रीय संबंध और व्यापार के हेतु:

    अंतर्राष्ट्रीय मैत्री, शांति और सद्भाव बनाए रखने में अनुवाद की निर्णायक भूमिका होती है।यह राजनयिक वार्ताओं और द्विपक्षीय समझौतों के लिए अपरिहार्य है, जहाँ दुभाषिए या अनुवादक देशों के प्रतिनिधियों के बीच विचारों के स्पष्ट आदान-प्रदान को सुनिश्चित करते हैं।वैश्वीकरण के इस दौर में, अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और वाणिज्य अनुवाद के बिना संभव नहीं है, क्योंकि यह कंपनियों को वैश्विक ग्राहकों से जुड़ने में मदद करता है।विदेशी देशों के प्रतिनिधियों का संवाद मौखिक अनुवाद की सहायता से ही होता है| जब की भाषाओं के वक्ता एक सम्मेलन में अपनी-अपनी भाषा में विचार व्यक्त करते है, तब उनके अनुवाद की व्यवस्था यथा संभव की जाती है, इससे परस्पर सहकार्य में सहायता मिलती है| इस क्षेत्र में अनुवाद में जरा भी चूक होने से मित्रता शत्रुता में बदल सकती है| 

4. साहित्य का संवर्धन:

    अनुवाद के सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र साहित्य है| विश्व के श्रेष्ठ साहित्य का परिचय अनुवाद के कारण ही होता है| इतनाही नहीं तो प्राचीन भाषाओं के वांग्मय को आधुनिक युग के पाठक अनुवाद के सहारे ही समझ पाते है| इसके साथ अनुवाद एक भाषा के साहित्य को अन्य भाषाओं के शैलियों, मुहावरों, छंदों और दार्शनिक तथ्यों से समृद्ध करता है।यह अपनी भाषा को नई अभिव्यक्ति और वैचारिक गहराई प्रदान करने में सहायता करता है।इस प्रकार साहित्य को संवर्धित करने के हेतु अनुवाद महत्व है| इसके साथ प्राचीन और अर्वाचीन कला को जोडने में भी अनुवाद सेतु का काम करता है| 

5. संचार के माध्यमों के सुविधा हेतु :

        आज के भूमंडलीकृत विश्व में, जहाँ लोग सीमाओं के पार यात्रा और काम करते हैं, अनुवाद विविध भाषा-भाषी लोगों के बीच संप्रेषण की बाधाओं को दूर करता है।रेडियो, दूरदर्शन, समाचार पत्र, मोबाईल और कम्प्युटर दैनिक जीवन के हर क्षेत्र में इसकी अनिवार्यता महसूस की जाती है। कारण आज ये  माध्यम अत्यंत लोकप्रिय और प्रत्येक भाषा प्रदेश में इनका प्रचार बढ रहा है| इनसे प्रसारित होनेवाले सभी प्रकार कें कार्यक्रम प्रादेशिक भाषाओं में होते है| परंतु प्रादेशिक भाषाओं में सीमित सामग्री ही प्राप्त होती है| अत: बाकी सामग्री अन्य भाषाओं से अनुदित करनी पडती है| इस प्रकार संचार माध्यमों के सुविधा हेतु अनुवाद का विशेष महत्व है| आकाशवाणी भारत में ही नहीं तो विश्व में आज काम कर रही है | इसमें विश्व के कई भाषाओं में खबरें प्रसारित होती है| इनकी तैयारी अनुवाद्कों द्वारा ही की जाती है| 

6) लेखक को देश कालातीत बनाने हेतु:-
        किसी भी साहित्यकार की यह इच्छा रहती है कि उसका साहित्य अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचे| यह तभी हो सकता है जब उसकी रचना अपने देश की सीमा से बाहर तथा देश में प्रचलित दूसरी भाषाओं के भाषियों तक पहुंचे| यह कार्य अनुवाद द्वारा ही संभव है| इस प्रकार अनुवाद ही लेखकों को कालातीत बनानेवाला तत्व है| 
        संक्षेप में, अनुवाद एक सृजनात्मक प्रक्रिया है जो भाषाओं की शक्ति को बढ़ाती है, राष्ट्रीय एकता और विश्वबंधुत्व की भावना को मजबूत करती है, और हमें 'विश्व एक इकाई' की अवधारणा को साकार करने में मदद करती है। 

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1.3. अनुवादक के गुण 

                अनुवाद एक कला ही नहीं अपितु विज्ञान भी है और साथ -साथ कौशल भी है| लगातार अभ्यास, अनुशीलन तथा अध्ययन आदि से इसमें सफलता प्राप्त की जा सकती है| अनुवाद कार्य इसी कुशलता की पहचान होती है क्योंकि उसके सामने अनुवाद के समय दो भाषाएं होती हैं और उन दोनों भाषाओं के स्वरूप तथा मूल प्रकृतिएवं प्रवृत्ति का गहन अध्ययन, अनुशीलन करना अनुवादक का प्रथम कर्तव्य होता है| केवल शब्द, वाक्यांश अथवा पदावली का यथास्थिति सिर्फ लिख देना अनुवाद नहीं होता बल्कि स्त्रोत भाषा में व्यक्त विचारों, भावों तथा प्रवृत्तियों को यथा संभव लक्ष्य भाषा में प्रकट करना ही अनुवाद होता है| अत: यह निर्विवाद सत्य है कि अनुवाद मूल लेखन से कहीं अधिक कठिन कार्य है| अत: अनुवाद को सफल बनाने की लिए अनुवादक के पास निम्नलिखित गुण होना जरुरी होता है| 

1. लक्ष्य भाषा एवं स्रोत भाषा पर अधिकार : 

        एक अच्छे अनुवादक का पहला गुण यह है कि उसे स्रोत भाषा एवं लक्ष्य भाषा पर पूर्ण अधिकार होना चाहिए । भाषा का अल्प ज्ञान या कामचलाऊ ज्ञान होने से अर्थ का अनर्थ हो जाता है । अतः अनुवादक को दोनों भाषाओं के अर्थ, प्रकृति, मुहावरे, अपभाषा व बोलियों की भी जानकारी होनी चाहिए। यह अनुवादक का पहला गुण है।

2. भाषिक समाजों की संस्कृति का ज्ञान:

         अनुवादक का दूसरा गुण है कि उसे स्रोत     भाषा तथा लक्ष्य भाषा के समाजों की; उनके परिवेश की संस्कृति एवं सभ्यता की अच्छी जानकारी होनी चाहिए अन्यथा अंग्रेजी के Labour Pain  के लिए परिश्रमजन्य पीड़ा जैसा अनुवाद हो जाता है । लेबर पेन वस्तुतः अंग्रेजी समाज में प्रसव पीड़ा को कहा जाता है। इसी प्रकार वह गुड मॉर्निंग को सुप्रभात कहेगा जबकि भारतीय परंपरा में नमस्कार, प्रणाम, नमस्ते आदि अभिवादन होते हैं। इस प्रकार बिना भाषिक समाज के ज्ञान के किया गया अनुवाद हास्यास्पद हो जाता है ।

3. विषय का समुचित ज्ञान:

        अनुवादक जिस विषय का अनुवाद कर रहा हो उसे उस विषय का अच्छा ज्ञान होना चाहिए अन्यथा अनुवाद अर्थहीन होगा या कभी-भी उल्टा अर्थ देने वाला अनुवाद हो जाता है। क्योंकि एक ही शब्द अलग-अलग विषयों में अलग-अलग अर्थ देता है, उदाहरण के लिए पोस्ट शब्द का बैंकिंग जगत में अर्थ होता है- प्रविष्ट, पद या तैनाती, सामान्य जनता व सामान्य बोलचाल में इसका अर्थ होता है डाक तथा क्रियारूप में प्रयोग करने पर अर्थ हो जाता है पत्र डालना। यदि यह शब्द डिग्री के साथ लग जाए 'उत्तर' जैसे पोस्ट-ग्रेजुएट स्नात्कोत्तर, यदि अन्य शब्दों में उपसर्ग की भाँति लगे तो कैंप पोस्ट, यदि सेना या पुलिस या चुंगी में प्रयोग हो तो अर्थ होगा चौकी, जैसे चैक पोस्ट यानी निगरानी चौकी। अतः विषय के अनुसार शब्दों के अर्थ बदल जाते हैं, इसलिए अच्छे अनुवाद के लिए विषय का ज्ञान उत्तम गुण माना जाता है ।

4. पारिभाषिक शब्दावली का ज्ञान:

        अनुवादक का चौथा गुण है कि उसे यह ज्ञात होना चाहिए कि कौन-सा शब्द पारिभाषिक है और कौन-सा शब्द सामान्य है। पारिभाषिक शब्द का ज्ञान न होने से सही अनुवाद हो ही नहीं सकता । जैसा ऊपर उदाहरण में दर्शाया है। पास बुक हास बीन पोस्टेड का अर्थ होता है पास बुक में प्रविष्टि कर दी गई है। इसका अर्थ यह नहीं होगा कि पास बुक डाक से भेज दी गई है। यह अंतर शब्दों के पारिभाषिक स्वरूप को पहचानने पर ही संभव है ।

5. शब्दकोशों के उपयोग एवं कोशों की जानकारी:-

         अनुवादक का एक गुण यह है कि उसे शब्द कोशों का अच्छा ज्ञान होना चाहिए। कौन से शब्दकोश का उपयोग कब किया जाना है इसकी जानकारी अति आवश्यक है। साथ ही शब्द कोश को देखने की कला में प्रवीण होना चाहिए अन्यथा शब्द का अर्थ दढ़ने में काफी विलंब होगा व कभी-कभीअनुवादक प्रमादवशात् भी शब्द कोश देखने में रुचि नहीं लेगा। अतः कोश देखने व इसके उपयोग में निपुण होना अनुवादक का गुण है ।

6. निष्ठा : 

        अनुवादक को अपने कर्तव्य के प्रति निष्ठावान होना चाहिए अन्यथा निष्ठा के अभाव में अनुवाद अपूर्ण होगा ही, साथ ही बीच-बीच में अनुवाद छोड़ना, कठिन शब्दों का अधिकाधिक लिप्यंतरण व निर्जीव अनुवाद जैसी बुराइयाँ आ जाएँगी ।

7. रुचि : 

        अनुवाद कार्य के प्रति निष्ठा जितनी जरूरी है उतना ही जरूरी है अनुवाद के प्रति रुचि व रुझान, इन गुणों के अभाव में अनुवाद विश्वसनीय नहीं होता व अनुवादक अनुवाद कार्य को एक बोझ समझकर करता है ।

8. अनुभवी व विश्वसनीय : 

        अनुवादक के लिए यह भी नितांत जरूरी है कि वहअनुभवी व परिपक्व विचार वाला हो। गैर जिम्मेदार व लापरवाही व जल्दबाजी करने वाले स्वभाव का व्यक्ति न तो अनुवाद सही कर पाता है और न ही प्रूफरीडिंग। अनुवादक का विश्वसनीय होना इसलिए जरूरी है कि अनुवाद एकमात्र व्यक्ति होता है जो मूल पाठ और अनूदित पाठ दोनों को जानता है। यदि वह विश्वसनीय नहीं होगा तो वह गलत अनुवाद द्वारा गलत सूचना देगा जिससे बड़ी हानि होने का भय सदैव बना रहता है। गैर अनुभवी व्यक्ति में जिम्मेदारी की भावना अपेक्षाकृत कम होती है क्योंकि उसे गलत अनुवाद से होने वाली हानियों का पता नहीं होता। अतः अनुवाद का एक गुण अनुभवी और विश्वसनीय होना भी है।

9. लोक कल्याण की भावना:

         अनुवाद का एक गुण यह भी है कि वह जो कुछ करता है उसका प्रत्यक्ष संबंध समाज से होता है, अतः वह अनुवाद के द्वारा दो भाषाओं को जोड़ता है, अतः उसका कार्य जोड़ने का होता है तोड़ने का नहीं। यदि कोई अनुवादक स्व-प्रेरणा से किसी रचना का अनुवाद करने को उद्यत होता है तो उसमें भी उसकी यही भावना रहती है कि जिस वृत्ति का उसने आस्वादन किया है उस कृति से दूसरे भी लाभान्वित हों, अतः यहाँ भी समाज के प्रति उसका दायित्व बोध झलकता है। सरकारी तंत्र में भी जो अधिकारी हिंदी कक्षों / विभागों में बैठे अनुवाद कर रहे हैं उनका लक्ष्य भी भारत की एकता को मजबूत करना व राष्ट्रभाषा के प्रचार-प्रसार द्वारा अखंड भारत का निर्माण ही है। अतः अनुवादक में यह लोक कल्याणकारी सकारात्मक भावना होना नितांत जरूरी है । आज जब हर चीज बिकने लगी है ऐसे वातावरण में भी अनुवादक को यह लोकोपकारी भावना बनाए रखनी होगी क्योंकि अनुवादक का सम्मान करने वाले आज भी काफी मात्रा में हैं।

10. रचनाशीलता : 

        अनुवादक मूलतः सर्जक होता है। उसमें रचनाशीलता स्वभावतः होती ही है। अनुवादक में यदि रचनाशीलता नहीं होगी तो वह सहृदय पाठक भी नहीं होगा, क्योंकि रचनाशील व्यक्ति ही भावनाओं की गहराई तक पैठ सकता है। अनुवादक भी सृजन करता है। स्रोत भाषा से तो वह कथ्य लेता है, शेष रचना, जैसे-शैली, शब्द एवं प्रस्तुति वह स्वयं करता है। अतः रचनाशीलता अनुवादक का श्रेष्ठ गुण है, यही रचनाशीलता उसकी सर्जनात्मक प्रतिभा के रूप में प्रस्फुटिक होती है।

11. परकाया प्रवेश में निपुण:

         अनुवाद अर्थ को परकाया प्रवेश भी कहा जाता है।अनुवादक मूल लेखक के मन-मस्तिष्क में प्रवेश करके उसकी भावना के साथ तादात्य स्थापित करता है । इस प्रकार वह मूल लेखक की अनुभूतियों को स्वयं भोगता है तब ही वह उसी टक्कर का अनुवाद हो पाता है। अतः अनुवादक को परकाया प्रवेश में निपुण होना चाहिए ।

12. लक्ष्य समूह की जानकारी: 

        अनुवाद का एक गुण यह होता है कि वह इसकी जानकारी रखे कि अनुवाद का पाठक वर्ग कौन सा है और उसका बौद्धिक स्तर कितना है। पाठक की क्षमता के अनुसार भाषा के स्तर को बनाए रखना अनुवादक का परम धर्म है । अतः अनुवादक को अपने लक्ष्य समूह अर्थात् पाठक वर्ग की पूर्ण जानकारी होनी चाहिए ।

13. लिप्यंकन एवं लिप्यंतरण में क्षमता:

         अनुवादक को अनुवाद में अनेक बार लिप्यंकन और लिप्यंतरण भी करना पड़ता है। अतः अनुवादक को लिप्यंकन एवं लिप्यंतरण में दक्ष होना चाहिए, लिप्यंकन व लिप्यंतरण की त्रुटि से अर्थ संप्रेषण में बाधा आती है। अतः लिप्यंकन एवं लिप्यंतरण में दक्षता भी अनुवादक का गुण है।

14. विवेकशीलता : 

        अनुवाद में कभी-कभी ऐसी स्थिति आती है कि कुछ छोड़ना या कुछ जोड़ना अनिवार्य होता है। ऐसी स्थिति में अनुवादक को इतना विवेकशील व चतुर होना चाहिए कि वह कुछ छोड़ने या जोड़ने पर भी अनुवाद की पूर्णता को आँच न आने दे । अतः यह निर्णय की क्षमता तथा किस सीमा तक छोड़ना या जोड़ना है इसके निर्धारण हेतु विवेक का होना अनुवादक का अच्छा गुण है ।

15. मूल के प्रति निष्ठा:

         अनुवाद में कभी ऐसा भी होता है कि मूल को छोड़कर स्वतंत्र अनुवाद अधिक सरल होता है परंतु अनुवादक को चाहिए कि वह मूल के प्रति सदैव निष्ठावान रहे व मूल से अधिक हटकर न चले। अतः मूल से दूर न हटना भी अनुवादक का गुण है। इसे मूलनिष्ठता भी कह सकते हैं।

16. निरंतर अभ्यास : 

        अनुवाद सीमित अर्थों में कला और कुछ अर्थों में शिल्प है । अतः कला और शिल्प को जिस प्रकार जीवित रखने व उसमें उत्तरोत्तर सुधार लाने के लिए निरंतर अभ्यास व प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है उसी प्रकार अनुवाद शिल्प के लिए निरंतर अभ्यास जरूरी है। अतः अनुवादक का एक गुण यह भी है कि वह सदैव अनुवाद कर अभ्यास करता रहे व अनुभवी अनुवादकों से प्रशिक्षण लेकर इस शिल्प में निखार लाए।

17. विश्लेषण की क्षमता : 

            अच्छे अनुवादक की यह पहचान है कि वह स्रोत सामग्री के अंतर में प्रवेश करके उसका सही विश्लेषण कर सके। अनुवाद प्रक्रिया के दौरान पद-पद पर उसे इसकी आवश्यकता होती है। वास्तव में अनुवादक के मानसिक स्तर पर अनुवाद की सारी प्रक्रिया विश्लेषणात्मक ही होती है। यह विश्लेषण विषय और भाषा इन दोनों स्तरों पर होता है। यदि विषय विश्लेषण द्वारा उसे शब्दों के आवरण को भेदकर कथ्य के मर्म तक पहुँचने में मदद मिलती है तो भाषिक विश्लेषण द्वारा उसे सटीक शब्दों का चयन करने तथा विषय के अनुकूल शैली अपनाने की दिशा प्राप्त होती है । यदिअनुवाद पुनर्सजन है, तो अनुवादक विश्लेषण के निकष पर ही मूल सामग्री की जाँच-परख कर उसका पुनसृजन करता है ।

18. अनुवादक के व्यक्तित्व का प्रभाव :

            अनुवादक की निजी विशेषताओं में प्रतिभा, संवेदनशीलता, सहज बुद्धि, कल्पनाशीलता, नवोन्मेषक्षमता, लेखन कार्य में स्वाभाविक रुचि आदि है जो अच्छे अनुवाद के लिए सर्वोपरि है। इनमें किसी एक का अभाव अनुवाद की गुणवत्ता को खंडित करता है। डॉ. सुरेश कुमार ने अनुवादक को जन्मजात कहा है ।उनमें जन्मजात प्रतिभा होती है । अतः अनुवादक के व्यक्तित्व का प्रभाव अनुवाद पर पड़ता ही है । 

19. मूल लेखक के साथ तादात्म्य : 

            अनुवादक का मूल लेखक तथा उसकी कृति के साथ तादात्म्य होना बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। यद्यपि अनुवादक को अनुवाद करते समय तटस्थ भाव रखना चाहिए फिर भी उसके मन में मूल लेखक के प्रति श्रद्धा भाव होना उचित है। न जैनेंद्रकुमार के अनुसार, 'अनुवादक को मूल व्यक्तित्व में पहले अपने को खो देना होता है, फिर के उसी में आत्मभाव पैदा करके अपनी भाषा के माध्यम द्वारा उस भाषा-भाषी के प्रति अपने बाको भावार्पित करना पडता है'। बाईबल की अधिकांश अनुवादों की सफलता का रहस्य श्री. कपाल पी. वर्गीज के अनुसार अनुवादकों और मूल लेखकों में परस्पर तादात्म्य है। वैज्ञानिक तथा - अन्य सूचना परक अनुवाद में सिर्फ विषय का ज्ञान एक सीमा तक पर्याप्त होगा, किंतु कविता न तथा अन्य साहित्यिक विधाओं के अनुवाद में मूल लेखक के विचारों के साथ सहानुभूति, व अंतरदर्शन और समभावना बहुत ही आवश्यक है ऐसा डॉ. जी. गोपीनाथन मानते हैं। ऐसे स्थलों पर अनुवादक एक सह्यदय पाठक तथा स्रष्टा दोनों हो जाता है, वह मूल लेखक की आत्मा के साथ एकाकार होने की योग-प्रक्रिया अपनाता है।

20. भाषा शैली : 

            अनुवाद करते समय भाषा शैली के प्रयोग के संबंध में अनुवादक को सचेत और सतर्क रहना पड़ता है । अनुवादक की भाषा शैली के तीन पहलू हैं- मूल लेखक की भाषा शैली, अनुवादक की भाषा शैली और अनूदित पाठ की भाषा शैली । अनुवादक मूल लेखक की भाषा शैली को आत्मसात करता है और अनुवाद के पाठक, उसके उद्देश्य आदि के अनुसार अपनी शैली को ढालता है। मूल पाठ शैली में यथा स्थिति आवश्यकतानुसार परिवर्तन भी किया जा सकता है। अनुवाद की अपनी भाषा शैली है। जो एक ओर तो मूल भाषा पाठ के माध्यम से मूल लेखक की शैली के साथ सामंजस्य की स्थिति में रहती है और दूसरी ओर उधिष्ट पाठक के उपयुक्त होती है । अनुवादक की अपनी भाषा शैली है और इसी भाषा शैली पर निर्भर रहती है। शैली की विशेषता तथा व्यक्तिगत चिंतन अनुवादक को भी सर्जक की श्रेणी में स्थान दे सकते हैं ।

21.  पुनर्निरीक्षणः 

                अनुवाद प्रक्रिया के अंतिम सोपान में अनुवादक मूल रचना के कथ्य एवं कथन से स्रोत भाषा में किए गये अनुवाद की तुलना करता है और वह इस बात से आश्वस्त होता है कि उसने मूल रचना के किसी अंश को न तो छोडा है और न अपनी ओर ससे कुछ अनावश्यक जोडा है। अनुवादक कोई यांत्रिक मशिन नहीं होता वह एक भावुक सर्जनशील व्यक्ति होता है। इसी कारण उसका व्यक्तित्व अनुवाद्य कृती पर हावी न हो जाय इसका भी उसे ध्यान रखना पडता है और इसीलिए उसे पुनर्निरीक्षण करना चाहिए। अवधेश मोहन गुप्त ने अनुवादक को निम्नलिखित बातों की ओर ध्यान देने के लिए कहा है-

1. अनुवाद कथ्य तथा तथ्यों की दृष्टि से मूल के समतुल्य है या नहीं।

2. अनुवाद कथन तथा शैली की दृष्टि से मूल के समतुल्य है या नहीं।

3. अनुवाद आवश्यकता से अधिक मूल-मुक्त या मूल-निष्ठ तो नहीं है।

4. अनुवाद की भाषा सहज एवं प्रवाहपूर्ण है या नहीं।

5. अनुवाद की भाषा तथा अभिव्यक्ति का स्तर उसके संभावित पाठक वर्ग के अनुकूल है या नहीं।

6. कहीं मूल का कोई अंश अनूदित होने से छूट तो नहीं गया।

7. अनुवाद में झलकने वाली अनुवाद की वैयक्तिक शैली वांछनीय सीमा के ही भीतर है या नहीं।

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1.4 अनुवाद के क्षेत्र

        आज की दुनिया में अनुवाद का क्षेत्र बहुत व्यापक हो गया है| सारी दुनिया को एक करने में, मानव-मानव को एक दूसरे के निकट लाने में, मानव जीवन को अधिक सुखी और संपन्न बनाने में अनुवाद की महत्वपूर्ण भूनिका है| यह एक बहुत ही बडी सच्चाई है कि मनुष्य को परस्पर विभाजित करने वाली शक्तियों में भाषाओं की अनेकता की अहम् भूमिका है । भाषाओं की अनेकता मनुष्य को एक दूसरे से अलग ही नहीं करती, उसे कमजोर, ज्ञान की दृष्टि से निर्धन और संवेदनशून्य भी बनाती है। अपने देश को ही लें। यदि हमारे यहाँ इतनी भाषाएँ न होती तो राष्ट्रीय एकता की समस्या इतनी जटिल न होती जितनी कि आज है ।

                पर यह तो एक प्रकृति प्रदत्त तथ्य है जिसे स्वीकार करे को हम अभिशप्त हैं, किंतु इसके दुष्प्रभाव को कम करने का एक जरिया है अनुवाद । हम आज अनुभव करते हैं कि हमारे यहाँ 'भारतीय साहित्य' की परिकल्पना संभव है। कुछ दिन पूर्व इस प्रकार की संभावना नहीं दिखाई पड़ती थी। पर जैसे-जैसे अनुवादों की संख्या बढ़ती जा रही है, यह संभावना भी बल पकड़ती जा रही है। यदि समस्त भारतीय भाषाओं में उपलब्ध साहित्य का सभी भाषाओं में, या कम से कम किसी एक भाषा में, अनुवाद हो जाए तो भारतीय साहित्य की परिकल्पना साकार हो जाएगी। इसके साथ ही साथ हमारे सामने विश्व साहित्य की परिकल्पना भी उभर कर सामने आ रही है। इस तरह भारतीय साहित्य तथा विश्व साहित्य अनुवाद का बहुत बड़ा क्षेत्र बन गया है। वैसे देखा जाए तो अनुवाद के मुख्य दो क्षेत्र हैं- एक साहित्यिक क्षेत्र तथा दो साहित्येत्तर क्षेत्र । प्रथमतः हम अनुवाद के साहित्यिक क्षेत्र पर विचार करेंगे तत्पश्चात् साहित्येतर क्षेत्र पर ।

1. भारतीय तथा विश्व  साहित्य क्षेत्र:

            भारत बहुभाषाभाषी देश है । इस देश में संविधान की धारा 351 अनुसूची 8 के अंतर्गत 22 भाषाएँ राष्ट्रीय भाषाएँ हैं। इन 22 राष्ट्रीय भाषाओं के अतिरिक्त कुछ ऐसी भी भाषाएँ हैं जिनका साहित्य उच्च कोटि का है। अतः भारत की एक भाषा की उच्च कोटि की कृति दूसरी भाषा में ले जाने का साधन अनुवाद है । अनुवाद के द्वारा बांगला के श्रेष्ठ उपन्यास हिंदी, मराठी में अनूदित होकर आ रहे हैं। अनुवाद के लिए यह बहुत बड़ा क्षेत्र है। इसके साथ ही साथ वैज्ञानिक तरक्की के कारण आज पूरा विश्व एक दूसरे से नजदीक आ रहा है। इसी कारण आज विश्व साहित्य की परिकल्पना संभव है। संसार की श्रेष्ठ कृतियों का अन्य भाषाओं में अनुवाद हो रहा है। अनुवाद के कारण एक देश के लोग दूसरे देश के लोगों के साथ भावात्मक तथा वैचारिक स्तर पर एक दूसरे के साथ लगाव महसूस कर रहे हैं। एक दूसरे की कृतियाँ पढ़ रहे हैं।

            अगर हमें भारतीय साहित्य की कल्पना को साकार करना है तो समस्त भारतीय भाषाओं रचनाओं का अनुवाद करना आवश्यक है। साहित्य की अनेक विधाएँ हैं। जैसे-नाटक, उपन्यास, कविता, कहानी, निबंध आदि। इन सभी विधाओं की श्रेष्ठ रचनाएँ हर भाषा में प्राप्त हैं । अतः प्रत्येक भारतीय भाषाओं की सभी श्रेष्ठ रचनाएँ अनूदित होकर एक भाषा से दूसरी भाषा में जानी चाहिए। अगर इस प्रकार का कार्य हो जाए तो दोनों भाषा-भाषियों को एकता के सूत्र में बांधा जा सकता है। यह कार्य अनुवाद के द्वारा हो सकता है ।राष्ट्र की सीमाओं का अतिक्रमण करके हम विश्व एकता की सीमा में प्रवेश करते हैं। संसार में असंख्य भाषाएँ हैं और अनेक ऐसी भाषाएँ हैं जिनका साहित्य बहुत समृद्ध है। यदि विश्व की सारी भाषाओं के समस्त साहित्य का हर भाषा में अनुवाद हो जाए तो मनुष्य जाति सांस्कृतिक, वैचारिक और संवेदनात्मक दृष्टि से कितनी समृद्ध हो जायेगी, इसका अनुमान नहीं किया जा सकता । पर विश्व की सारी भाषाओं के क्रमचय (परम्युटेशन) की दृष्टि से देखा जाए तो यह कार्य कितना कठिन है, यह बताने की जरूरत नहीं । पर इससे इस कार्य का महत्व कम नहीं होता । अतः अनुवाद का क्षेत्र है विश्व की समृद्ध भाषाओं के समृद्ध साहित्य का अनुवाद करना ।

2. ज्ञानात्मक साहित्य क्षेत्र:

            साहित्य एक बहुत व्यापक शब्द है। समस्त ज्ञान राशि का संचय साहित्य है। इसके अंतर्गत ज्ञान देने वाली अनेक भाषाएँ आ जाती हैं। ज्ञानात्मक साहित्य के भी मुख्यतः दो पक्ष हैं जिनके अनुसार अनुवाद के क्षेत्र और स्वरूप भिन्न हो जाता है। इनमें पहला पक्ष है परिचयात्मक साहित्य । परिचयात्मक साहित्य के अंतर्गत विभिन्न उपयोगी वस्तुओं के साथ उपलब्ध कराये जाने वाले परिचय पत्र, जो अपने देश में प्रायः अंग्रेजी में होते हैं, समाचार एजेन्सियों से प्राप्त होने वाले समाचार, अखबारों में छपने वाले विज्ञापन और विज्ञप्तियाँ जैसी अनेक चीजें आती हैं। ज्ञानात्मक साहित्य का दूसरा पक्ष है समाज विज्ञान संबंधी साहित्य और इसका तीसरा पक्ष है प्राकृतिक विज्ञान संबंधी साहित्य ।

          समाज विज्ञान के अंतर्गत इतिहास, भूगोल, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, दर्शनशास्त्र ऐसे विषयों के साहित्य का अनुवाद शामिल होगा। प्रकृति वैज्ञानिक साहित्य के अंतर्गत गणित, भौतिकी, रासायनिकी, भौतिकी, जैविकी आदि विषयों के साहित्य का अनुवाद अन्तर्युक्त हो ।

3. भाव प्रधान सृजनात्मक साहित्य क्षेत्र: 

        भाव प्रधान सर्जनात्मक साहित्य के भी अनेक रूप हैं। इनमें प्रमुख हैं- कविता, नाटक, कहानी, उपन्यास, ललित निबंध आदि। इन रूपों का अनुवाद एक-दूसरे की भाषाओं में होने की जरूरत है। यह अनुवाद का बहुत बड़ा क्षेत्र है ।

4. शिक्षा क्षेत्र : 

        विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी का क्षेत्र बीसवीं सदी में तेज गति से विकास कर रहा है। इन क्षेत्रों की विभिन्न भाषाएँ भी एक दूसरे से आगे बढ़ने के प्रयास में है। इंजीनियरी, चिकित्सा-विज्ञान एवं अंतरिक्ष-विज्ञान जैसे क्षेत्रों में आज अनेकों देश शोध कार्य करते हुए प्रगति-पथ पर अग्रसर होते जा रहे हैं। उन देशों के वैज्ञानिक अपनी भाषा में शोध सामग्री प्रस्तुत करते हैं । विज्ञान एवं तकनीकी क्षेत्रों के संस्थानों में जो अनुवाद रहा है वे उक्त शोध कार्य का अनुवाद कर रहे हैं। सामान्य रूप से विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी केन्द्रों के अनुवादक सामान्य वैज्ञानिक विषयों के विद्वान होते हैं। ये ही अनुबाद विशेष अध्ययन अध्यवसाय एवं अनुभव से विशिष्ट क्षेत्र की विशिष्ट सामग्री के कुशल अनुवाद बन जाते हैं | पूर्णकालिक

5. उद्योग एवं व्यापार क्षेत्र : 

        भारत में उद्योग एवं व्यापार का क्षेत्र अत्यंत समृद्ध है । यहाँ के बड़े उद्योग विदेशी संस्थाओं से संबंध रखते हैं। उन संस्थाओं से पत्राचार करनापड़ता है । व्यापार के क्षेत्र में पत्राचार के अलावा, संस्थाओं का तुलनपत्र, उपयोग का सर्वेक्षण, सरकारी उत्पादन शुल्क, आयात शुल्क, निर्यात शुल्क, आयात-निर्यात की पूरी सूची आदि का अनुवाद अनुवादक को करना पड़ता है। व्यापारी संस्थाओं के अनुवादक को अपनी-अपनी संस्था के माल का विज्ञापन अनेक भाषाओं में अनूदित करना पड़ता है।

6. पर्यटन क्षेत्र : 

        अनुवाद करना एक पेशा भी है। अतः अनुवादक पेशे का सबसे महत्त्वपूर्ण केंद्र है पर्यटन का क्षेत्र । प्रत्येक देश के प्रमुख नगरों में अंतर्राष्ट्रीय पर्यटन कराने वाली एजेन्सियाँ होती हैं, जिनमें अनुवादक या दुभाषिए होते हैं। इनको स्थानीय भूगोल, संस्कृति, सभ्यता एवं इतिहास की अच्छी जानकारी रखनी पड़ती है।

7. प्रशासन क्षेत्र : 

        यह अनुवाद का बहुत बड़ा तथा व्यापक क्षेत्र है। प्रशासन की बहुत सारी शाखाएँ होती हैं। इनमें विदेश विभाग, कूटनीति-विभाग, गुप्तचर विभाग, पुलिस विभाग आदि आते हैं। इन विभागों को विदेशी भाषा से काम पड़ता है। प्रमाण-पत्र, दस्तावेज आदि विदेशी भाषाओं में होते हैं। इन सबको अनूदित करना पड़ता है। देश में भी प्रशासन के अनेक विभाग होते हैं। एक विभाग का दूसरे विभाग से संपर्क स्थापित करना पड़ता है। केंद्रीय प्रशासन को राज्य शासन से संपर्क स्थापित करना पड़ता है। ऐसे समय कार्य का विवरण दूसरे प्रांतों को या केंद्र को पहुँचाना होता है, तो वहाँ अनुवादकों की सेवा लेनी पड़ती है।

8. कार्यालयीन क्षेत्र : 

        भारत में अनेक कार्यालय हैं एक कार्यालय का संबंध दूसरे कार्यालय से आता रहता है। भारत में कार्यालयीन कामकाज अंग्रेजी भाषा में चलता है। इस देश में केवल दो ही भाषाओं का क्षेत्र है। एक हिंदी क्षेत्र तथा दूसरा अहिंदी क्षेत्र । हिंदी भाषी प्रदेशों के कार्यालयों का कामकाज हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी में चलता है। अहिंदी भाषी क्षेत्र में विशेषतः दक्षिण भारत तथा पूर्वांचल में कार्यालयी कामकाज अंग्रेजी में चलता है। वहाँ अंग्रेजी का वर्चस्व दिखाई देता है। एक प्रांत के कार्यालय को दूसरे प्रांत के कार्यालय से पत्र-व्यवहार करना पड़ता है। अर्थात् अहिंदी भाषी तथा हिंदी भाषी प्रांतों के मध्य कार्यालयी पत्राचार करते समय अनुवाद करना पड़ता है। यह अनुवाद अंग्रेजी में करना पड़ता है ।

9. संसदीय क्षेत्र: 

        संसद में भारत के सभी प्रांतों के प्रतिनिधि होते हैं। संसद के प्रतिनिधियों की भाषाएँ अलग-अलग हो सकती हैं। अर्थात् संसद में भारत के विभिन्न भाषा-भाषी सांसद होते हैं। उनमें से कुछ सांसदों को ठीक ढंग से हिंदी नहीं आती। वे अपने भाषण या अपने विचार अपनी मातृभाषा में दे सकते हैं। कुछ सांसद अंग्रेजी में बोल सकते हैं लेकिन कुछ को अंग्रेजी नहीं आती। ऐसी स्थिति में अनुवादकों के द्वारा उनके भाषणों या विचारों को अनूदित करना पड़ता है।

10. कार्यालयीन क्षेत्र : 

            भारत में न्यायालय की भाषा समय-समय पर बदलती रही है । मुसलमानों के शासनकाल में न्यायालय के अंतर्गत उर्दू चलती थी। उसके बाद अंग्रेजों के जमाने में अंग्रेजी का वर्चस्व रहा। आजादी के बाद न्यायालयों में प्रादेशिक भाषाओं का प्रयोग किया जाने लगा है। आज भी कुछ वकील अंग्रेजी में पैरवी करते हुए दिखायीदेते हैं । न्यायालय के अंतर्गत जो दस्तावेज होते हैं वे भिन्न-भिन्न भाषाओं में होते हैं । इन दस्तावेजों का अनुवाद करना पड़ता है व इनका अनुवाद अंग्रेजी में किया जाता है । अतः न्यायालयीन क्षेत्र के अंतर्गत अनुवादकों की अहम् भूमिका है ।

11. संचार माध्यम क्षेत्र : 

        अनुवाद का सबसे बड़ा कार्य क्षेत्र संचार माध्यम है। आज समाचार-पत्र, आकाशवाणी, दूरदर्शन महत्वपूर्ण तथा लोकप्रिय संचार माध्यम है। राष्ट्रीय समाचार पत्र पूरे संसार की ताजी खबरें एवं सूचनाएँ हमें पहुँचाते हैं। देश-विदेश की विभिन्न भाषाओं में निकलने वाली खबरें अनूदित होकर ही समाचार-पत्र में छपती हैं। राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जो समाचार एजेन्सियाँ होती हैं, वे अनुवादक नियुक्त करके शीघ्रातिशीघ्र ताजी खबरों का अनुवाद करा लेती हैं। दैनिक समाचार-पत्रों के साथ-साथ साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक एवं वार्षिक पत्रिकाएँ होती हैं एवं विभिन्न क्षेत्रों व विषयों की होती है । वाणिज्यिक विषयों की, चिकित्सा विज्ञान की, खेती की एवं घर की सजावट संबंधी विषयों की पत्रिकाएँ बड़ी संख्या में होती हैं। बालकों की, स्त्रियों की एवं फिल्मों की पत्रिकाएँ भी होती हैं। इन पत्रिकाओं में दुनिया भर की सामग्री होती हैं और यह सामग्री अनुवादकों के द्वारा ही इन पत्रिकाओं को मिलती हैं। इन पत्रिकाओं के कार्यालयों में पूर्णकालिक अनुवादक नियुक्त होते हैं ।

            आकाशवाणी के कार्यक्रमों में अनुवाद की प्रमुख भूमिका है। इनके द्वारा भारत की लगभग सभी प्रमुख भाषाओं में वार्ता प्रसारित की जाती है। इनका विभिन्न भाषाओं में अनुवाद तैयार किया जाता है।

        संचार माध्यम के साधनों में दूरदर्शन का महत्वपूर्ण स्थान है। इस विभाग का नेटवर्क अत्यंत व्यापक होता है । दूरदर्शन में कई चैनल अपने कार्यक्रम प्रसारित करते हैं। विभिन्न भाषाओं में कार्यक्रमों के प्रसारण के लिए उन्हें अनुवाद का ही सहारा लेना पड़ता है । दूरदर्शन में अनुवादकों की काफी संख्या होती है।

12. धार्मिक एवं दार्शनिक क्षेत्र:

         धार्मिक एवं दार्शनिक क्षेत्र में भी अनुवाद की अहम् भूमिका है। भारत में अनेक धर्म है। प्रत्येक धर्म की अपनी भाषा होती है। उस धर्म के अनुयायी ही उसकी भाषा का ज्ञान रखते हैं। किसी एक धर्म के ज्ञान को दूसरे धर्म के लोगों को प्राप्त कराना है तो वह अनुवाद के द्वारा ही संभव है। धर्म के ज्ञान का अनुवाद विभिन्न भाषाओं में करने की आवश्यकता है। कुछ धार्मिक एवं दार्शनिक संस्थाएँ अपने धर्म, सिद्धांत एवं दर्शन को पत्रिकाओं में नियमित रूप से अंग्रेजी में प्रकाशित करती रहती है । ये संस्थाएँ भी अनुवादकों का महत्व स्वीकार करती हैं।

13. सांस्कृतिक एवं कलागत क्षेत्र:

         राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर संस्कृति एवं कला के क्षेत्र में संबंध स्थापित करने हेतु अनुवाद अहम् भूमिका निभा सकता है। भारत में प्रत्येक प्रांत की अपनी सांस्कृतिक भाषा कलागत विशेषताएँ हैं। इनका ज्ञान भारत के दूसरे प्रांतों में कराना है तो अनुवाद के जरिए करोया जा सकता है। ठीक इसी प्रकार भारत तथा विदेश के हर राष्ट्र की संस्कृति तथा कला एक-दूसरे से भिन्न है। अगर इनका एक दूसरे से परिचय कराना है तो अनुवाद ही करा सकता है। अतः सांस्कृतिक तथा कलागत क्षेत्र अनुवाद के लिए बहुत बड़ा क्षेत्र है ।

 14. अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र : 

            यह अनुवाद का बहुत व्यापक तथा महत्वपूर्ण क्षेत्र है। विश्व की संघठन चुनाओं में कुछ अवसरों पर दुनिया भर के प्रतिनिधि आते हैं। वे अपना वक्तव्य अपनी भाषा में ही देते हैं। वक्ता जिस भाषा में अपना वक्तव्य देता है। उस देश का दुभाषिया उस देश की भाषा में उसका अनुवाद प्रस्तुत करता है । प्रत्येक देश दूसरे देश में अपने राजदूत भेजता रहता है। वहाँ उनका अपना कार्यालय होता है । ये राजदूत अपने विचारों को अपनी भाषा में प्रस्तुत करते हैं। अतः संबंधित देश में उनके विचारों को स्पष्ट करने के लिए अनुवाद की व्यवस्था की जाती है। इतना ही नहीं दो देशों के मध्य पारस्परिक समझ और मित्रता को बढ़ाने में भी अनुवाद की प्रमुख भूमिका रहती है ।

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