1) जो बीत गयी सो बात गयी - हरिवंशराय बच्चन
बच्च्चन जी ने जीवन के सत्य को समझाया है कि जो समय बीत जाता है, वह लौट कर कभी वापस नहीं आता है| जिस व्यक्ति में कुछ करने का, कुछ पाने का जुनून होता है, वह किसी के छूटने- टूटने की परवाह नहीं करता| वह अपने जुनून में आगे बढता जाता है| जो पीछे छूट जाता है, उसे बीती हुई रात की तरह भूल जाता है |कठिन परिश्रम से प्राप्त किया हुआ लक्ष्य भी छूट जाए, तो उसके लिए भी बैठकर पछतावा या दुख नहीं मनाता है| बल्कि और लगन के साथ आगे बढ़ता है| छोटे से जीवन को, दुख मनाने या अफसोस करने में नहीं बिताना, बल्कि कुछ करके दिखाना है| इसलिए जो बीत गई सो बात गई। इसे ही विभिन्न प्राकृतिक उदाहरणों के माध्यम से बच्चन जी ने प्रस्तुत कविता में चित्रित किया हैं |
कविता का आशय
जीवन में एक सितारा था
माना वह बेहद प्यारा था
वह डूब गया तो डूब गया
अम्बर के आनन को देखो
कितने इसके तारे टूटे
कितने इसके प्यारे छूटे
जो छूट गए फिर कहाँ मिले
पर बोलो टूटे तारों पर
कब अम्बर शोक मनाता है
जो बीत गई सो बात गई
कविता के पहले अंश में कवि कहना चाहते हैं कि जो समय बीत गया है, उसे भूलने में ही हमारी भलाई है। जीवन जीते वक्त अनेक ऐसे लोग जीवन हमारे जीवन में आते हैं, लगता हैं उनका साथ कभी छुटे ही नहीं| परंतु समय गति के अनुसार प्रत्येक मनुष्य को अपने कर्म पथ पर आगे जाना ही पडता हैं| इसका मतलब यह नहीं जिसके लिए हम अपना जीना छोड दे|अगर बडा होने के बाद बेटा छोडकर चला जाने के बाद मां ने क्या अपना जीना छोड देना उचित हैं? कारण जो बीत ... यह बात प्रकृति हमें सिखाती हैं| जैसे कवि नें अंबर के आनन का उदा. दिया है| इस काव्य पंक्तियों में कवि ने यह बताया है कि अंबर के हर रोज न जाने कितने तारे टूटते हैं, परंतु अंबर कभी शोक नहीं मनाता|
जीवन में वह था एक कुसुम
थे उसपर नित्य निछावर तुम
वह सूख गया तो सूख गया
मधुवन की छाती को देखो
सूखी कितनी इसकी कलियाँ
मुर्झाई कितनी वल्लरियाँ
जो मुर्झाई फिर कहाँ खिली
पर बोलो सूखे फूलों पर
कब मधुवन शोर मचाता है
जो बीत गई सो बात गई
कविता के दूसरे अंश में कवि ने कुसुम (फूल )के माध्यम से जीवन के रहस्य को समझाने का प्रयास किया है।कवि कहता है कि मधुबन (फूलों का बगीचा )में कितनी कलियां सूख गई ,कितनी लताएं (वल्लरियां) मुरझा गई। परंतु जो सूख गई या मुरझा गई ,वे फिर कभी खिलती नहीं।पर मधुवन उन मुरझाएं फूलों पर कभी शोर नहीं मचाते हैं ,बीते हुए समय को पकड़ने का प्रयास व्यर्थ हैं।प्रकृति के वसंत को देखो फूलों से भरा रहता है, परंतु जब पतझर हो जाती है तो सारे फूल, कलियां मुरझा जाती हैं| परंतु प्रकृति क्या इनके सूखने पर शोक प्रकट करती हैं? नहीं, क्योंकि जो एक बार सूख जाता है वह दोबारा नहीं खिलता है इसलिए जो चला गया उसे जाने दो। ऐसे ही इन्सान के जीवन अनेक सुख के पल आते तो कभी सुख के बाद दुख के भी पल आते | सुख के बाद दुख और दुख के बाद सुख आता-जाता ही रहेगा, कारण यह दोनों भी जीवन के पहलु हैं| इसलिए किसी के जाने के बाद शोक नहीं करना करना यह प्रकृति सिखाती है| कारण पतझए के बाद ही नयी हरियाली आती हैं|
कविता के तीसरे अंश में बच्चन जी ने यह समझाने का प्रयास किया है कि जीवन अनेक मधु अर्थात शहद भरे प्यालें अर्थात प्रसंग होते | जो हमारे तन-मन में बसे रहते हैं| उदा. देना चाहेंगे तो यह दे सकते है जीवन में प्रत्येक इन्सान ऐशों आराम की जिंदगी जीने का सपना देखता हैं| जिसके लिए अपना तन-मन नौछावर कर देता है | परंतु उसके लिए सच्ची जिंदगी जीना ही भूल जाता है अर्थात वह सच्चे जिंदगी से टूट जाता है| परंतु कुछ समय के बाद इस पर पछतावा करने से कोई फायदा नहीं होता | कारण एक बार गिरने से फिर उठाना असंभव होता है जैसे मदिरालय में जाने वाले कि स्थिति हो जाती है| जहां रोज न जाने कितने प्याले टूट जाते और कितने मिट्टी में गीर मिट जाते हैं| परंतु इसपर मदिरालय कभी भी पछताता नहीं |
कविता के चौथे अंश में बच्चन जी ने इस कविता का सार प्रस्तुत किया है। हमारा शरीर मृदु मिट्टी का बना हुआ हैं और मृदु घट फुटा ही करतेहैं| अर्थात कहने का तात्पर्य यह है कि हमारा शरीर मिट्टी का बना हुआ है और एक दिन मिट्टी में ही मिल जाएगा ।हमारा शरीर भी तो इस मिट्टी के प्याले की तरह ही है। जो टूटेंगे ही !कारण मृत्यु के समक्ष मनुष्य की सारी शक्तियां असमर्थ है|परंतु कवि का कहने का तात्पर्य यह है कि जो व्यक्ति कमजोर है ।वह दुख पूर्ण समय को याद करता रहता है।परंतु जो व्यक्ति मानसिक रूप से दृढ़ होते हैं वे ऐसे समय को याद कर अपने भविष्य को बरबाद नहीं करते | कारण जब हम जन्म लेते हैं ,तभी से हम मृत्यु की ओर बढ़ने लगते।जन्म का मूल कारण ही मृत्यु है । इसी वास्तविकता को ध्यान में रखकर बीती हुई बातों पर कभी भी नहीं सोचना चाहिए | बल्की जो बीत गयी उस बात को भूल पुन: जीवन की मधुरता को पीकर आगे बढना चाहिए| कारण परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत नियम है।
---------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
2) प्रेमरोग - कुंवर नारायण
प्रेमरोग
एक अजीब-सी मुश्किल में हूँ इन दिनों—
मेरी भरपूर नफ़रत कर सकने की ताक़त
दिनोंदिन क्षीण पड़ती जा रही
अँग्रेज़ी से नफ़रत करना चाहता
जिन्होंने दो सदी हम पर राज किया
तो शेक्सपीयर आड़े आ जाते
जिनके मुझ पर न जाने कितने एहसान हैं
मुसलमानों से नफ़रत करने चलता
तो सामने ग़ालिब आकर खड़े हो जाते
अब आप ही बताइए किसी की कुछ चलती है
उनके सामने?
सिखों से नफ़रत करना चाहता
तो गुरु नानक आँखों में छा जाते
और सिर अपने आप झुक जाता
और ये कंबन, त्यागराज, मुत्तुस्वामी...
लाख समझाता अपने को
कि वे मेरे नहीं
दूर कहीं दक्षिण के हैं
पर मन है कि मानता ही नहीं
बिना उन्हें अपनाए
और वह प्रेमिका
जिससे मुझे पहला धोखा हुआ था
मिल जाए तो उसका ख़ून कर दूँ!
मिलती भी है, मगर
कभी मित्र
कभी माँ
कभी बहन की तरह
तो प्यार का घूँट पीकर रह जाता
हर समय
पागलों की तरह भटकता रहता
कि कहीं कोई ऐसा मिल जाए
जिससे भरपूर नफ़रत करके
अपना जी हल्का कर लूँ
पर होता है इसका ठीक उलटा
कोई-न-कोई, कहीं-न-कहीं, कभी-न-कभी
ऐसा मिल जाता
जिससे प्यार किए बिना रह ही नहीं पाता
दिनोंदिन मेरा यह प्रेम-रोग बढ़ता ही जा रहा
और इस वहम ने पक्की जड़ पकड़ ली है
कि वह किसी दिन मुझे
स्वर्ग दिखाकर ही रहेगा।
‘प्रेम रोग’ कुंवर नारायण लिखित कविता है| जिसमें कवि ने मानवी जीवन की सच्चाई और मनुष्य के मन की संवेदना को चित्रित किया है| सच्चाई यही है कि एक मनुष्य का दूसरे मनुष्य के साथ रिश्ता - संवेदना के कारण जुड़ जाता है न कि धर्म, जाति ,पंत देखकर, परिणाम स्वरूप एक मनुष्य दूसरे मनुष्य से नफरत नहीं कर सकता| परंतु जब जाति, धर्म की बात आती है तो यह नफरत की भावना मन में अनायास उभर कर आती है, परंतु एक बार संवेदना के साथ रिश्ता जुड़ जाता है तो धर्म, जाती से परे मनुष्य का रिश्ता बन जाता है उस वक्त वह चाहकर भी किसी से नफरत नहीं कर सकता, इस सच्चाई को कुंवर नारायण जी ने प्रस्तुत कविता में चित्रित किया है जिसका अर्थ है निम्नांकित रूप में है-
0 टिप्पणियाँ