भिक्षुक कविता का आशय - सुर्यकांत त्रिपाठी 'निराला

        भिक्षुक 


वह आता
दो टूक कलेजे को करता,पछताता
पथ पर आता।

पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक,
चल रहा लकुटिया टेक,
मुट्ठी भर दाने को — भूख मिटाने को
मुँह फटी पुरानी झोली का फैलाता —
दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता।

साथ दो बच्चे भी हैं सदा हाथ फैलाए,
बाएँ से वे मलते हुए पेट को चलते,
और दाहिना दया दृष्टि-पाने की ओर बढ़ाए।
भूख से सूख ओठ जब जाते
दाता-भाग्य विधाता से क्या पाते?
घूँट आँसुओं के पीकर रह जाते।
चाट रहे जूठी पत्तल वे सभी सड़क पर खड़े हुए,
और झपट लेने को उनसे कुत्ते भी हैं अड़े हुए !

ठहरो ! अहो मेरे हृदय में है अमृत, मैं सींच दूँगा
अभिमन्यु जैसे हो सकोगे तुम
तुम्हारे दुख मैं अपने हृदय में खींच लूँगा।

'भिक्षुक' कविता का आशय 

 'भिक्षुक ' कविता सुर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' लिखित है| जो उनका चर्चित काव्यसंग्रह 'परिमल' से ली है| प्रस्तुत कविता में कवि ने 'भिक्षुक और उसके दो बच्चों के दयनीय अवस्था को चित्रित किया है | एक ओर उसके दयनीय अवस्था को चित्रित किया है, तो दूसरी ओर उसे जीवन में संघर्ष का सामना करने का संदेश भी दिया है |

      कारण प्रस्तुत कविता में भिक्षुक एक जीवन से हारे हुए व्यक्ति का प्रतीक है| जैसे वह जीवन से हार गया है और लाचार होकर भीख मांग रहा है| 

    परंतु लेखक ने भिक्षुक को यह संदेश दिया है कि संघर्ष से डटकर सामना करना चाहिए और स्वाभिमान से जीना चाहिए|

        प्रस्तुत कविता में कवि भिखारी को भीख मांगते हुए देख रहें है| जिसकी बिल्कुल दयनीय अवस्था है| उसकी इस अवस्था को लेखन ने यथार्थ शब्दों में व्यक्त किया है| 

        वह बिल्कुल दयाभाव से अर्थात दो टूक कलेजे के कर  लोगों से  भीख मांग रहा है| शायद वह कई दिनों का भूखा है, कारण उसका पेट और पीठ दोनों मिलकर एक हो गये है| अर्थात उसकी बिल्कुल कृशक काया बन गई है| जिसके कारण वह लाठी टेककर चल रहा है| केवल मुठ्ठीभर दाने के लिए वह मजबूर हो गया है और लोगों के सामने मुंह फटी पुरानी झोली फैला रहा है|

     अपनी भूख मिटाने के लिये वह  लोगों के सामने दया याचना की भीख मांग रहा है| परंतु किसके भी मन में दया भाव उत्पन्न नहीं होता, तो पछताकर  आगे पथ पर बढ जाता है|

    भिक्षुक केवल अकेला नहीं तो साथ में दो बच्चें भी हैं| जिनके ओंठ  भूख से तो बिल्कुल सूख गये है| इसलिये वह दोनों हाथों से इशारा कर यह बता रहे कि वे कितने भूखे हैं| बाये हाथ से वे अपने पेट को मल रहें है और दहिना दया दृष्टि पाने के लिए आगे बढा रहे है| फिर भी दाता-भाग्यविधाता का उनकी तरफ ध्यान नहीं जाता |  तब वे निराश होते है और उनकी आखों में आंसू बहने लगते| परंतु उनके आंसू देखने वाला कोई नहीं, इसलिये वे आंसूओं के घुंट पीकर रह जाते है| अर्थात अपनी वेदना को दबाकर रखते है| कारण उनकी वेदना को समझने वाला कोई नहीं|

        इसलिये अपनी भूख को मिटाने के लिए वह रास्तें पडी जूठी पत्तले चाटने की लिए मजबूर हो जाते है| परंतु वह भी उनके नशीब में नहीं| कारण पहले से वहां कुत्ते जमा हो गये हैं| इसप्रकार एक मनुष्य होकर  भी भिक्षुक कुत्ते से भी बदत्तर जिंदगी जीने के लिये मजबूर है|

        इसलिये कवि के मन में उनके प्रति संवेदना जागृत होती है और वे भिक्षुक को कहते है कि रुको इतना लाचार होने को आवश्यकता नहीं| मेरे हृदय में तुम्हारे लिए अमृत अर्थात प्यार है| परंतु मेरी एक शर्त है कि तुम अभिमन्यु के समान संकट/संघर्ष  का सामना करो| अर्थात जब तुम गरीबी से डटकर सामना करोगे तो निश्चित यह संकट दूर होगा| अगर तुम ऐसा कर सकोगे तो तुम्हारें दुख-दर्द को मैं अपने हृदय में समेट लूंगा| 

        इसप्रकार प्रस्तुत कविता में लेखक ने भिक्षुक की दयनीय अवस्था को चित्रित कर मानवता को जगाने का प्रयास किया है और साथ में प्रत्येक इन्सान को जीवन में आनेवाले संकट का सामना भी करना चाहिए है, यह संदेश दिया है| तब उनकी मदद के लिये लेखक के जैसे संवेदनशील व्यक्ति हमेशा आते हैं|




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