गद्य की परिभाषा
भाषा का वह रूप जो उसकी व्याकरणिक संरचना के सर्वाधिक नजदीक हो, वह गद्य कहलाता है, जब कि पद्य में प्रमुखता व्याकरणिक नियमों की नहीं छंद, लय और भाव की होती है|
गद्य लेखन का प्रारंभ –
गद्य में लेखन वैसे तो प्राचीन काल से होता आ रहा है| लेकिन इसकी प्रमुखता मुद्रण प्रणाली के अस्तित्व में आने और समाचार पत्रों के प्रकाशित होने के बाद ही हुई| भारत में मुद्रण की आधुनिक प्रणाली आरंभ अंग्रेजों के आने के बाद हुआ|
हिंदी गद्य लेखन की पृष्ठभूमी-
आधुनिक काल के आरंभ से पूर्व अर्थात १९ वीं शताब्दी से पूर्व अन्य भारतीय भाषाओं की तरह हिंदी भाषा में भी गद्य रचनाएं अधिक नहीं हुई थी| आज खडीबोली साहित्य की भाषा हैं, परंतु पूर्व आधुनिक काल अर्थात 16 वीं – 17 वीं काल में उसका साहित्य में प्रयोग नगण्य सा था | क्यों कि उस समय ब्रज भाषा साहित्य की भाषा थी| लंबे समय तक इसी भाषा में साहित्यिक रचनाएं होती रही|भाव विचार की अभिव्यक्ती के लिये काव्य रचनाएं होती थी, लेकिन आपस में विचार विनिमय के लिये एक अलग भाषा का प्रयोग होता था| बोलचाल की यह भाषा गद्यात्मक थी| ब्रज भाषा के इसी रूप का प्रयोग गद्यात्मक रचनाओं में होता था आरंभिक गद्य रचनाओं की दृष्टि से ऐसी रचनाओं का महत्वपूर्ण स्थान हैं|
आरंभिक गद्य साहित्य –
1.ब्रजभाषा का साहित्य –
अपना संदेश जनता तक सुगमता से पहुंचाने के लिये इस भाषा में साहित्य लिखा गया |ब्रज भाषा का प्रामाणिक रूप 17 वीं शती के उत्तरार्ध में निम्न रचनाओं में मिलता है-
1.चौरासी वैष्णवन की वार्ता
2.दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता
3.१६६० वि.सं . – नाभादास – अष्टयाम
परंतु यह रचना बिलकुल कम मात्रा में मिलती है, इसका अर्थ यह हैं कि ब्रज भाषा में गद्य साहित्य का विकास नहीं हो पाया | कारण वह सीमित ब्रज क्षेत्र की भाषा थी|
२. खडीबोली गद्य -
14 वीं शती में खडीबोली दिल्ली के आसपास के क्षेत्र में बोली जानेवाली भाषा थी मुगल काल में शासन की सुविधा और जनता में संपर्क बनाये रखने के लिये खडीबोली का प्रयोग हुआ|मुगल बाहर आए थे| उनकी मातृभाषा तुर्की थी|लेकिन राज-काज की भाषा की दृष्टि से उन्होंने फारसी भाषा का प्रयोग किया था|खडीबोली का प्रयोग जब संपर्क भाषा के रूप में हुआ तब फारसी मिश्रित खडीबोली से एक नई शैली का विकास हुआ| उसे ही हिंदवी, हिंदुई, रेख्ता और आगे चलकर उर्दू कहा|
२. खडीबोली गद्य -
प्रारंभ - 14 वीं शती- अमीर खुसरो- पहेलियां, मुकरियां लिखी |
अमीर खुसरो के बाद खडीबोली का विकास दक्षिण में हुआ |दक्खिनी हिंदी रूप में 14 वीं से १८ वीं शती तक अनेक साहित्यिक ग्रंथों की रचनाएं हुई|इन रचनाकारों में निम्न लिखित प्रमुख हैं-
1.ख्वाजा बंदा नवाज(१३२२-१४३३ ) २. शाह मीरा जी
३. बुराहाद्दीन जानम (१५४४-१५८३) 4. मुल्ला वजही (सब रस )
२. खडीबोली गद्य -
मुगल साम्राज्य ने खडीबोली गद्य के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई| खडीबोली गद्य का प्रामाणिक रूप हमें अकबर के दरबारी कवि गंग की रचना “चंद छंद बरनन की महिमा” (१५७०) में मिलता है|
खडीबोली गद्य का विकास धीरे-धीरे हो रहा था |
रामप्रसाद निरंजनी(पटियाला दरबारी) – ‘भाषा योग वशिष्ठ’
हिंदी गद्य के विकास में अनेक संस्थाओं का योगदान -
1.ईसाई मिशनरियां –
मुगलों के शासन के उत्तर काल में इसाई धर्म प्रचारक इस देश में आए थे |जब अंग्रजो ने भारत को पराधीन किया और अपना शासन स्थापित किया, तक ईसाई धर्म प्रचाराकों की गतिविधियां तेज हो गयी धर्म प्रचार के लिए उन्होंने भारतीय भाषाओं का सहारा लिया|उनमें हिंदी एक थी | जिस में उन्होंने धर्म प्रचार की दृष्टि से अनेक हिंदी भाषा में किताबें तैयार की|इसतरह हिंदी गद्य के विकास में उन्होंने योगदान दिया | जैसे- ‘बायाबिल’ का हिंदी भाषा में अनुवाद |
हिंदी गद्य के विकास में अनेक संस्थाओं का योगदान -
२. अंग्रेजों द्वारा नवीन आविष्कार-
भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना ३१ दिसंबर, १६०० ई.स. में हुई थी|इस कंपनी ने १८४४-१९५६ के बीच देश के दूर-दूर के क्षेत्रों को रेल तथा तार से जोड दिया| अंग्रेजों ने अपनी सत्ता सदृढ करने के लिए मुद्रण,रेल, तार आदि अधिक विकास किया, परिणाम स्वरूप अनेक पत्र- पत्रिकाओं का विकास तेजी से हो गया| इसीकरण गद्य का भी विकास हो गया|
हिंदी गद्य के विकास में अनेक संस्थाओं का योगदान -
३. शिक्षा का विस्तार –
सन १८८४ में लार्ड मैकाले ने ब्रिटीश पार्लमेंट में भारत में अंग्रेजी शिक्षा प्रसारित करने आवश्यकता पेश की | जिसके लिये नये-नये स्कूल और कॉलेजों की स्थापना की|
1.१८०० – फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना(१८२४ )
2.१८१७ – कलकत्ता स्कूल बुक सोसाइटी
3.१८२३ – आगरा कॉलेज
4.१८३३ – आगरा स्कूल बुक सोसाइटी
हिंदी गद्य के विकास में अनेक संस्थाओं का योगदान -
4. समाज सुधार आंदोलन -
राजा राम मोहन राय – ब्रह्म समाज
स्वामी दयानंद सरस्वती- आर्य समाज – सत्यार्थ प्रकाश (हिंदी)
५. पत्र-पत्रिकाओं का योगदान –
1. हिंदी का प्रथम पत्रिका – ‘उदंत मार्तंड’ – कलकत्ता – पं. जुगलकिशोर शुक्ल ३० मई, १८८६
हिंदी गद्य के विकास में अनेक संस्थाओं का योगदान -
2.बंगदूत – हिंदी का दूसरा पत्र -९ मई, १९२९ – कलकत्ता
३. प्रजामित्र – कलकत्ता – १८३४
4. बनारस(समाचार पत्र) १८४४- राजा शिवप्रसाद सितारे हिंद
५. मार्तंड – १८४६- मौलवी नासिरुद्दीन
देखते - देखते १९ वीं सदी के उतरार्ध में विपुल मात्रा में पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित हो गयी| जिसने हिंदी गद्य के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया हैं|
प्रारंभिक हिंदी गद्य लेखन –
१८०० इ.स. में कलकत्ता में फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना हुई|१८०३ ई. में इस कॉलेज के हिंदी-उर्दू अध्यापक जान गिलक्राइस्ट हिंदी और उर्दू में पुस्तके लिखाने का प्रयास किया | इन्होंने कई मुंशियों की नियुक्ति की| इसमें श्री लल्लू लाल और सदल मिश्र हैं| इन्होंने हिंदी में गद्य पुस्तकें लिखी |
इसी बीच दिल्ली निवासी मुंशी सदासुखलाल ने भागवत कथा का ‘सुखसागर’ नाम से अनुवाद किया|मुंशी इंशा अल्ला खां ने ‘ रानी केतकी की कहानी’ शुद्ध हिंदी में लिखने का प्रयास किया| इसमें अरबी-फारसी को पूर्णत: हटाने का प्रयास किया | अत: हिंदी गद्य के आरंभिक विकास में इन चारों लेखकों का महत्वपूर्ण योगदान है|
1.मुंशी सदसुखलाल ‘नियाज’ – (१७४६-१८२४)
उर्दू और फारसी के अच्छे कवि और लेखक थे|’सुखसागर’ के अतिरिक्त, विष्णुपुराण के प्रसंगों पर आधारित एक अपूर्ण रचना भी की है| ‘सुरासुर निर्णय’ और वातिक’ यह दो गद्य पुस्तकें भी मिलती हैं|
२. इंशाअल्ला खां – ‘उदय भान चरित’ और ‘रानी केतकी की कहानी’ इस्की भूमिका में लिखा है, “बैठे-बैठे यह बात अपने ध्यान में चढी कि कोई कहानी ऐसी कहिये कि जिसमें हिंदवी घूट और किसी बोली का पूट न मिले--|”
३. लल्लू लाल- (१७६३-१८२५)
फोर्ट विलियम कॉलेज से संबंधित थे| भागवत के दशम स्कंद पर आधारित ‘प्रेमसागर’ की रचना की |इनकी भाषा पर ब्रज भाषा का प्रभाव है|
4. सदल मिश्र- बिहार के रहनेवाले और फोर्ट विलियम कॉलेज से संबंधित थे| ‘नासिकेतोपाख्यान’ और ‘राम चरित’ | इनकी भाषा पर ब्रज और पूर्वी का प्रभाव है|
अंग्रेजों की भाषा नीति –
अंग्रेजों को भाषा नीति के खिलाफ राजा शिवप्रसाद सितारे हिंद और राजा लक्ष्मण सिंह ने महत्व पूर्ण कार्य किया|
अंग्रेज आने से पूर्व ‘फारसी’ भाषा राजकाज की भाषा थी |इसी बीच लार्ड मैकेले(१८३५) ने अंग्रेजी का प्रसार करना शुरू किया था | १८३६ तक फारसी राजभाषा तथा अदालत की भाषा थी |आगे लोगों की सुविधा की दृष्टि से हिंदी को भी स्थान मिला था, परंतु सरकार ने इसे विरोध किया| तब १८३७ में उर्दू को अदालत की भाषा बनाया|अत: १९ वीं के पूर्वार्ध में हिंदी के विकास की दृष्टि से सरकार की ओर से कोई मदद नहीं मिली |
इसी समय राजा शिवप्रसाद सितारे हिंद (१८२३-१८९५) शिक्षा विभाग में इन्स्पेक्टर पद पर नियुक्त थे| इन्होंने ठेठ हिंदी का सहारा लिया पाठ्यक्रम की दृष्टि से हिंदी साहित्य लिखा |पं. श्रीलाल और पं. वंशीधर को इस काम पर लगाया|१८६४- ‘इतिहास तिमिर नाशक’ इतिहास ग्रंथ लिखा| ‘ बनारस अखबार शुरू किया|
और राजा लक्ष्मण सिंह(१८२६-१८९६) ने महत्व पूर्ण कार्य किया| इन्होंने हिंदी और उर्दू को अलग-अलग भाषाएं माना है |’कालिदास’ के कई ग्रंथों का अनुवाद किया हैं|
१८४१ में ‘प्रजाहितैशी’ नामक पत्र निकाला |
इस तरह इन्होंने हिंदी गद्य के विकास मी महत्वपूर्ण योगदान दिया| भाषा सुव्यवस्थित और परिमार्जित करने के लिये भारतेंदू हरिशचंद्र नें मदद की |इसके अतिरिक्त पंजाब में स्वामी दयानंद सरस्वती के साथ बाबू नवीनचंद्र राय और श्रद्धाराम फुलौरी ने हिंदी के विकास के अथक प्रयास किए | बाबू नवीनचंद्र राय ने ब्रह्म समाज के सिद्धांतों के प्रचार के लिये अनेक पत्रिकाएं निकाली| जिसमें १९६७ में प्रकाशित ‘ज्ञानदायिनी’ प्रमुख है|
पंजाब में हिंदी को प्रसारित करने का काम श्रद्धाराम फुलौरी ने किया | ‘सत्यामृत प्रवाह’ एक सिद्धांत ग्रंथ लिखा| आत्म चिकित्सा, तत्वदीपक धर्म रक्षा, उपदेश संग्रह और ‘१८७३’ में ‘भाग्यवती’ नामक एक सामाजिक उपन्यास लिखा|
इसतरह १९ वीं सदी तक आते-आते हिंदी का व्यापक विकास हो गया, व्यापक व्यवहार होने लगा और व्यापक साहित्य रचना की दृष्टि से जमीन तैयार हो गई |ऐसे समय में भारतेंदू हरिशचंद्र जैसे महान व्यक्ति का आगमन हो गया | और जिंके प्रयासों से हिंदी गद्य को एक नयी दिशा और उर्जा प्राप्त हो गई|
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यात्रा साहित्य का उद्भव और विकास
इसप्रकार मनुष्य अनादिकाल से यात्राएं करता
आया है| इन रोचक और रोमांचकारी यात्रा वृत्तांतो को वह निश्चय ही
अपने बंधु-बांधवो तथा संपर्क में आनेवाले जिज्ञासुओं को सुनाता भी रहा होगा,
किंतु हिंदी के प्राचीन एवं मध्यकालीन साहित्य में इन वृतांतो को लिपि बद्ध
करने की परंपरा का कोई विवरण नहीं मिलता |
हिंदी में यात्रा साहित्य लिखने की परंपरा वस्तुत: पाश्चत्य साहित्य
के प्रभाव से विकसित हुई है |डॉ. पद्मसिंह शर्मा का कथन है, “जहां तक यात्रा
साहित्य का संबंध है, उसके उदय साहित्य की अन्य विधाओं के साथ अंग्रेजी के साथ प्रारंभ हुआ
है |वैसे
मध्य युग में यात्रा का उद्देश मात्र तीर्थ-दर्शन होता था | यह बात ब्रज भाषा में उपलब्ध कुछ
हस्तलिखित ग्रंथों से सिद्ध होती है| ये सभी यात्राएं चम्पू शैली में लिखी गयी है | अत: स्पष्ट है की
हिंदी में यात्रा वृत्तांत लिखने की परंपरा का सूत्रपात भारतेंदू से ही माना जा
सकता है |
इसी पर आधारित हिंदी यात्रा साहित्य के विकास को निम्न रूप में देख
सकते है-
भारतेंदू पूर्व यात्रा साहित्य – भारतेंदू पूर्व यात्रा साहित्य हस्तलिखित रूप में मिलता है – 1. सर्वप्रथम यात्रा साहित्य की कृति – विठ्ठल (गुसाई) जी की ‘वनयात्रा’ है| जो विक्रमी सं १६००(१५४३ ई.) में लिखा गया हैं| इसके लेखक का पता इस पंक्ति से मिलता है – इसमें लिखा है, “अथ वनयात्रा गुसाई जी महाराज प्रभु किए सो प्रकार लिखते है |” यात्राकार साहित्य २. श्रीमती जीमन जी की मां वनयात्रा (सं १६०९) बन यात्रा (सं १६०९ ) ३. अज्ञात सेठ पद्मसिंह की यात्रा (सं १७०५) ४. यह ग्रंथ हिंदू विश्वविद्यालय, काशी बात दूर देश की (सं १८८६) ५. अयोध्या नरेश वाख्तावरसिंह की पत्नी है बद्री यात्रा कथा (सं १८८८) ६. रामसहाय दास जी वन यात्रा परिक्रमा (१८६१) ७. माया शंकर याज्ञिक के संग्रह चौरासी कोस ब्रज यात्रा (१९०० ई ) ८. पं. वाचस्पति शर्मा (चैत) बद्रीनारायण सुगम यात्रा (सं १९६६ई.) उपर्युक्त हस्तलिखित ग्रंथों में वन यात्रा , सेठ पद्मसिंह की यात्रा, बात दूर देश की यात्रा, वन यात्रा परिक्रमा, ब्रज चौरासी कोस ब्रज यात्रा आदि ग्रंथ में गद्य में है | बद्री यात्रा ग्रंथों गद्य-पद्य (चंपू ) का मिश्रण मिलता है | इसप्रकार सं १६०० से लेकर सं १९६६ तक हस्तलिखित ग्रंथ प्राप्त होते है |
भारतेंदू युग में एक ओर विदेशी यात्रा का तो दूसरी तीर्थ यात्रा का वर्णन हो रहा था | भारतेंदू युगीन प्रमुख यात्रा साहित्य – यात्राकार साहित्य
मेरी दक्षिण दिग्यात्रा (१८८६ ई.) देव दर्शन 4. तोताराम वर्मा ब्रज विनोद (१८८८ ई. ) 5. लाला कल्याणचंद्र केदारनाथ यात्रा (१८९० ई.) 6. प्रतापनारायण मिश्र विलायत की यात्रा 7. देवी प्रसाद खत्री रामेश्वर यात्रा (१८९३ ई.) 8. पं. विष्णू मिश्र व्रज यात्रा ( १८९४ ई.) 9 . बाळकृष्ण भट्ट गया यात्रा, कातिकी का नहान 10 भारतेंदू हरिशचंद्र सरयू- पार की यात्रा लखनऊ की यात्रा हरि द्वार की यात्रा वैद्यनाथ की यात्रा २. द्विवेदी - युग (१९०० – १९२० ई. तक ) यात्रा वृत्त सामान्यतया परिचयात्मक है |उनमें स्थानों की संस्कृति, सभ्यता, कला, साहित्य आदि का कलात्मक विवरण हैं | यात्रा कार साहित्य
3. साधु चरण प्रसाद भारत भ्रमण ५- भाग (१९०३ ई. ) 4. पं. रामशंकर व्यास पंजाब यात्रा (१९०७ ई. ) 5. स्वामी सत्य देव परिव्राजक अमेरिका दिग्दर्शन (१९११ ई. ) मेरी कैलाश यात्रा (१९१५ ई.) , अमेरिका भ्रमण (१९१६ ई.) 6. धनपति लाल द्वारिका नाथ यात्रा (१९१२ ई.) 7. बाबू शिव प्रसाद गुप्त पृथ्वी प्रदक्षिणा (१९१४ ई.) 8. गोपालराम गहमरी लंका यात्रा का विवरण ( १९१६ ई.) 9. मौलवी प्रसाद मेरी ईरान यात्रा (१९३० ई.) 10. स्वामी मंगलानंद अफ्रीका यात्रा हमारी 3. उत्तर द्विवेदी युग – पूर्व- स्वातंत्र्य युग (१९२१ – १९५५ ई. तक) इस युग के यात्रा वृत्त में अपेक्षा कृत परिपक्वता परिलक्षित होती है| कलासौष्ठव के साथ इस युग के यात्रा – वृत्त में संस्मरणातत्मकता दिखाई देती है | यात्रा कार साहित्य
वर्तमान युग- स्वातंत्र्योत्तर युग (१९५५ से लेकर आज तक ) – स्वतंत्रता के बाद देश में आवागमन की सुविधाओं के विकास और संपन्नता में आशातीत श्रीवृधी के कारण यात्रा के लिये व्यापक प्रचार –प्रसार मिला| यात्रा कार साहित्य
7. मोहन राकेश आखिरी चट्टान तक ८. निर्मल वर्मा चीडों पर चांदनी ९. डॉ. रघुवंश हरी घाटी, मृग मरीचिका के देश में १०. डॉ. नगेंद्र तंत्रलोक से यंत्रलोक तक, अप्रवासी की यात्रा ११. हंसकुमार भू-स्वर्ग, कश्मीर १२. अक्षय कुमार जैन दूसरी दुनिया १३. देवेंद्र सत्यार्थी धरती गती है, रथ के पहिए १४. भगवत शरण उपाध्याय सागर की लहरों पर इस प्रकार यात्रा वृत्तों में वस्तुओं, व्यक्तियों, दृश्यों, और स्थितियों के बाह्य संश्लिष्ट बिंबविधान के साथ लेखक की रुचि, संस्कार, संवेदनशीलता और मानसिकता भी उजागर हो जाती है| उसमें देश-विदेश के नर-नारियों के प्रति रागात्मक संबंध परिपुष्ट होता है और लोगों में वसुधैव कुटुंबकम की भावना का विकास होता है | इस दृष्टि से यात्रा साहित्य एक उत्कृष्ट विधा है | अत: हिंदी में यात्रा साहित्य का भविष्य उज्वल हैं| बहुविकल्पी प्रश्न |
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