पानी की जाती - विष्णु प्रभाकर

पानी की जाती - विष्णु प्रभाकर

           'पानी की जाती' विष्णु प्रभाकर लिखित लघुकथा है| इसमें लेखक ने फर्क कहानी की तरह मानवता की बात 'पानी के माध्यम से समझाई है|यह कहानी हमें बताती है कि इंसान की सबसे बड़ी पहचान उसकी मानवता ही है, न कि उसका धर्म या जात। इसीलिये संकट के समय  में वह एक दूसरे के मद्द के लिए आगे आता ही है| उस समय वह अपना धर्म या जाति भूल जाता है| उस वक्त बस मानवता यही उसकी जात होती है जरूरतमंद की मदद करना, चाहे वह किसी भी धर्म या समाज का क्यों न हो, यही मनुष्य असली धर्म है|  

            यह कहानी एक हिंदू युवक और मुस्लीम दुकानदार के बीच घटे प्रसंग के माध्यम से सामने रखी हैएक युवक बी.ए. की परीक्षा देने वह लाहौर गया था| उन दिनों स्वास्थ्य बहुत ख़राब थासोचा, प्रसिद्ध डा. विश्वनाथ से मिलता चलूं| कृष्णनगर से वे बहुत दूर रहे थे| सितम्बर का महीना था और मलेरिया उन दिनों यौवन पर था| वह भी उसके मोहचक्र में फंस गया| जिस दिन डा. विश्वनाथ से मिलना था, ज्वर काफ़ी तेज़ था| स्वभाव के अनुसार वह पैदल ही चल पड़ा, लेकिन मार्ग में तबीयत इतनी बिगड़ी कि चलना दूभर हो गया| प्यास के कारण, प्राण कंठ को आने लगे| आसपास देखा, मुसलमानों की बस्ती थी| कुछ दूर और चला, परन्तु अब आगे बढ़ने का अर्थ ख़तरनाक हो सकता था| साहस करके वह एक छोटी-सी दुकान में घुस गया| गांधी टोपी और धोती पहने हुए था|

दुकान के मुसलमान मालिक ने उसकी ओर देखा और तल्खी से पूछा,‘‘क्या बात है?’’

जवाब देने से पहले वह बेंच पर लेट गया. बोला,‘‘मुझे बुखार चढ़ा है| बड़े ज़ोर की प्यास लग रही है| पानी या सोडा, जो कुछ भी हो, जल्दी लाओ!’’

मुस्लिम युवक ने उसे तल्खी से जवाब दिया,‘‘हम मुसलमान हैं.’’

वह चिनचिनाकर बोल उठा,‘‘तो मैं क्या करूं?’’

वह मुस्लिम युवक चौंका. बोला,‘‘क्या तुम हिन्दू नहीं हो? हमारे हाथ का पानी पी सकोगे?’’

उसने उत्तर दिया,‘‘हिन्दू के भाई, मेरी जान निकल रही है और तुम जात की बात करते हो. जो कुछ हो, लाओ!’’

युवक ने फिर एक बार उसकी ओर देखा और अन्दर जाकर सोडे की एक बोतल ले आया. वह पागलों की तरह उस पर झपटा और पीने लगा|

लेकिन इससे पहले कि पूरी बोतल पी सकता, उसे उल्टी हो गई और छोटी-सी दुकान गन्दगी से भर गई, लेकिन उस युवक का बर्ताव अब एकदम बदल गया था. उसने उसका मुंह पोंछा, सहारा दिया और बोला,‘‘कोई डर नहीं| अब तबीयत कुछ हल्की हो जाएगी| दो-चार मिनट इसी तरह लेटे रहो| मैं शिंकजी(नींबू का शरबत) बना लाता हूं|’’

उसका मन शांत हो चुका था और वह सोच रहा था कि यह पानी, जो वह पी चुका है, क्या सचमुच मुसलमान पानी था?

        इस प्रकार इस कहानी के माध्यम से यह समझाने का प्रयास किया है कि जिस तरह पानी की कोई जाती नहीं होती उसी प्रकार मनुष्य की भी कोई जाती नहीं होती| इन्सानियत ही  उसकी जाति होती है| इसी कारण इस कहानी में दुकानदार ने पहले धर्म का भेद किया, पर युवक की हालत देखकर उसने न केवल पानी दिया बल्कि सहारा भी दिया।

 


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