दूध का दाम - प्रेमचंद

 दूध का दाम - प्रेमचंद 

‘दूध का दाम’ प्रेमचंद लिखित कहानी है, जो ‘मानसरोवर भाग 2’ से ली गयी है| जिसमें लेखक  ने जातिगत  विषमता के प्रति परिवर्तित विचार के साथ,  लिंग विषमता तथा समानता और गांव के जच्चे खाने की समस्या को चित्रित किया है|  

कहानी का प्रारंभ गांव के जच्चेखाने की समस्या से हुआ| कारण गांव के जमीनदार महेशनाथ बाबू के यहां तीन लडकियों के बाद चौथी बार घर में नया मेहमान आनेवाला था| महेशनाथ बाबू जमीनदार होने के साथ शिक्षित भी थे| वे गांव के जच्चेखाने में सुधार करना चाहते थे, कारण उनके गांव में आज भी जच्चेखाने पर भंगिनों का ही प्रभुत्व हैं| परंतु शहर से कोई नर्स या डॉक्टर गांव आने के लिए तैयार ही नहीं| 

इसीलिए महेशनाथ बाबू के यहां जब चौथी बार लडका पैदा हुआ तब भूंगी को ही बुलाना पडा| भूंगी ‘दाई भी थी और दूध- पिलाई भी थी|’ उस वक्त भूंगी को तीन महिने का लडका था, जिसका नाम मंगल था| परंतु जमीनदार बाबू के यहां से बंधी हुई सौगात एक रुपया और साडी मिलने वाली थी| अगर लडका होता है तो सौगात में और भी चीचें मिल जाती है| 

इसीलिए तो भूंगी और पति गुदड में लडका ही होगा इसे लेकर बहस होती है तथा शर्त भी लगती है| गुदड अपनी मुंछे मुंडवाने की बात करता है| परंतु तीसरे दिन मुंछे उग आती है, यह उसे पता है, फिर भी ऐसी बात करता है| कारण वह सोचता है स्त्री में पुत्रकामना बलवान करने से बेटा ही होगा और ऐसा ही होगा जमीनदार के यहां चौथी बार बेटा ही होता है| और होता यह है कि तीन बेटियों के समय मालकीन को बहुत दूध था, बेटियों को ह्ज्मा तक हो गया था| परंतु बेटे के समय बिल्कुल भी दूध नहीं था| परिणामस्वरूप भूंगी को बुलाया जाता है| भूंगी भी अपने बेटे को छोड मालकीन के बेटे को संभालने के लिए चली जाती है| इतना ही नहीं तो अपने बेटे ए हिस्से का दूध मालिक के बेटे को पिलती है| जिसके चलते जमीनदार के घर में उसे अच्छा भोजन मान-सम्मान मिलने लगता है| इतना ही नहीं बडे हक्क के साथ कहती बेटे के मुंडन में वह चांदी के चुडे लेगी| मालकीन तो सोने की चुडे देने बात करती| इस तरह घर में मालकीन के बाद भूंगी का  राज्य था| 

परंतु भूंगी का यह राज साल भर से आगे चल न सका| गांव के देवता लोगों ने भंगिन के दूध पिलाने पर आपत्ति उठाई| यहां मोटेराम शास्त्री ने तो भूंगी का दूध पिलाना बंध किया इतना ही नहीं तो उसे प्रायश्चित लेने की लिए कहते | वह जमीनदार को समझाते है कि राजा का धर्म अगल होता है, प्रजा का धर्म अलग होता है, अमीर का धर्म अलग, गरीब का धर्म अलग… उनके लिए कोई बंधन नहीं समर्थ पुरुष है| बंधन तो मध्यवालों  के लिए है| इसीलिए प्रायश्चित करना पडेगा| परंतु महेशनाथ बाबू कहते है, “प्रायश्चित की खूब कही शास्त्रीजी, कल तक उसी भंगिन का खून पीकर पला, अब उसमें छूत घुस गयी| वाह रे आपका धर्म|” 

परिणामस्वरूप भूंगी को प्रायश्चित ननहीं करना पडा, परंतु उसका राज समाप्त हो गया| दक्षिणा तो उसे इतनी मिली कि वह अकेली नहीं ले जा सकी| उसके इस  त्याग का परिमाण यह हुआ कि मालकीन का बेटा सुरेश बिल्कुल हट्टा- कट्टा हो गया परंतु उसका अपना बेटा सुरेश मां का दूध न मिल सकने के कारण दुबला- पतला- सा रह गया|      

आगे दुर्भाग्य वश गुदड प्लेग में चला गया और कुछ ही दिनों में सांप के कान्टने से भूंगी भी चला बसी और अकेला मंगल रह गया| गांव में उसका कोई अपना नहीं था, इसीलिए उसने जमीनदार के घर के सामने के नीम का पेड था वहां उसने अपना डेरा जमाना| सुरेश बाबू की उतरण वह पहनता, बचा हुआ जूठा खाना खाता| वह बिल्कुल अकेला हो गया था| इसमें उसका एक मात्र साथी बन गया गया था, गांव का कुत्ता टामी| 

गांव के धर्मात्मा लोग महेशनाथ बाबू के इस उदारता पर  आश्चर्य व्यक्त करते, फिर भी मंगल का वहां रहना उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं था| इससे धर्म भ्रष्ट हो रहा है, ऐसा कहते|  मंगल को इतना छोटा था कि इस भेद-भाव को समझता नहीं था| 

परंतु मंगल को जब इस बात का एहसास होता है तब वह एक दिन घोडा-गाडी के खेल में सुरेश को कहता है, मैं कब कहता हूं कि मैं भंगी नहीं हूं; लेकिन तुम्हें मेरी मां ने दूध पिला कर पाला है| जब तक मुझे भी सवारी करने को न मिलेगी, मैं घोडा न बनूंगा| तुम लोग बडे चघड हो| आप तो मजे में से सवारी करेंगे और मैं घोडा ही बना रहूंगा|”  अर्थात वह भी मनुष्य हैं उसे मनुष्य की तरह जीने का अधिकार है| 

परंतु इस घोडा- गाडी के खेल में मंगल को ही घोडा बनना पडता है, आखिर जिनके हाथ में सत्ता होती है, उनका ही राज चलता है, यह बात यहां सिद्ध होती दिखाई देती है| सुरेश सवारी करता है, परंतु धब से गिर जाता है| कारण मूलत: मंगल दुर्बल था, वह भी सुरेश की वजह से ही! इस प्र मालकीन मंगल पर ही क्रोधित होती है, कारण सुरेश अपनी मां को झूठ बताता है कि मंगल ने उसे छुआ| मालकीन ने मंगल को छुने से मना किया था| वह मंगल का अपमान करती है और वहां से  निकल  जाने को कहती है| 

अब यहां कभी नहीं आएगा यह सोच मंगल वहां से निकल जाता है| गांव में कोई भंगी को पनाह नहीं देता| इसीलिए वह अपने खंडहर हुए घर में जाकर फूट-फूटकर रोता है| जैसे-जैसे दिन ढलने लगता है, वैसे-वैसे भूख लगने लगती है| भूखा मर जायेगा, पर वापस नहीं जायेगा, ऐसा टामी को कहता है| परंतु ज्यादा समय तक वह भूख को संभाल नहीं सका और वापस जमीनदार के घर की ओर ही चला दिया| तब घर के  सारे खान खा रहे थे| जब कहर जूठा खाना फेंकने के बाहर आता है तब टामी ही पेड से निकलकर आगे आते है| मंगल को भी प्रकाश में आना पडता| कहार उसे कहता है कि अब फेंकने वाला ही था, ले खा ले| 

मंगल टामी को कहता है, “देखा, पेट की आग ऐसी होती है! यह लात की मारी हुई रोटियां भी न मिलती, तो क्या करते|” …कौन कहता है दूध का दाम कोई नहीं चुका सकता, पर मुझे तो दूध का दाम मिल रहा है|    

इस प्रकार प्रस्तुत कहानी में जमीनदार के द्वारा भूंगी को सम्मान देना, मंगल को घर के सामने सहारा देना, मंगल के द्वारा सवारी की बात करना आदि बातें परिवर्तन की ओर इशारा करती है| परंतु मोटेराम शास्त्री जैसे कुछ धार्मिक पाखंडी इसे विरोध करते रहते है, परिणामस्वरूप समाज में जातीय विषमता की जो खाई है, वह मिटाने में महेशनाथ बाबू जैसे लोगों को संघर्ष का सामना करना पडता है| 


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