दोपहर का भोजन - अमरकांत
'दोपहर का भोजन' अमरकांत की एक चर्चित कहानी है। इसका आशय यह है कि यह कहानी
समाज में व्याप्त गरीबी, संघर्ष और निम्नवर्गीय जीवन की
विडंबनाओं को उजागर करती है।कहानी में एक साधारण परिवार के जीवन का चित्रण है,
जो पेट भर भोजन करने तक के लिए जूझता रहता है। कामकाजी आदमी मेहनत
करके परिवार का पालन-पोषण करना चाहता है, लेकिन परिस्थितियाँ
और गरीबी इतनी कठिन होती हैं कि 'दोपहर का भोजन' जैसी अधिकार की बात भी उसके लिये एक बड़ी समस्या और संघर्ष का विषय बन जाती है। अत: दोपहर का भोजन अभावग्रस्त जीवन
जीनेवाले परिवार का प्रतिक है| इन परिवारवालों में
अभावग्रस्तता के बाद भी जो आत्मीयता है इसे भी इस कहानी में चित्रित किया है|
कहानी के प्रारंभ में कहानी की नायिका सिद्धेश्वरी खाना बनाने के बाद लगभग
बहुत समय तक वही बैठी रही और अचानक पानी पीने की याद आणे के कारण उठती है और गट-गट
कर पानी पिती है, जो उसके कलेजे को लगता है| कारण पेट जो खाली है| वह आधे घंटे तक वही जमीन पर
लेटी रही| फिर उसकी दृष्टि ओसरे (बरामदा) पर पडे अपने
छः वर्षीय बच्चा प्रमोद की ओर जाती है| उसके हाथ -पैर बांस
की ककडियों की तरह सूखे थे| पेट हंडियाकी तरह फूला था|
मुंह खुला था जिसकी वजह से उसपर अनगिनत मक्खियां उठ रही थी |
सिद्धेश्वरी उठती है और अपना गंदा,
फटा हुआ ब्लाउज उसके मुंह पर डाल देती
है| वही पर एक आधे मिनट सुन्न खडी रहती है| बाद में किवाड की आड से ही गली को निहारती है| दोपर
के बारह बजे है| कडी धूप की वजह से एक्का दुक्का आदमी सडक पर
नजर आ रहा था| उसके चेहरे पर व्यग्रता फैल गयी कारण उसका पति
और बेटे अभी तक खाना खाने के लिए नहीं आये थे| इतने में बडा
बेटा रामचंद्र आता हुआ नजर आया| जिसकी उम्र इक्कीस है जो
देखने में लंबा, दुबला-पतला, गोरा रंग,
बडी-बडी आंखे तथा ओठों पर झुरियां है| जिसने
पिछले साल ही इंटर पास किया है| दैनिक समाचार पत्र के दफ्तर
में अपनी तबीयत से प्रूफ-रीडरी का काम सिखता है|
तब उसने फुर्ती से ओसरे के चौकी के पास पानी
लोटा रख दिया और साथ में खाने के लिए पीढा रख दिया| परंतु
रामचंद्र पीढे पर बैठेन के बजाय चौकी में से जूतों
सहित धप्प बैठ गया और लेट
गया| पर उसे उठाने के हिम्मत सिद्धेश्वरी की नहीं हुई| परंतु दस मिनट के बाद भी बेटा नहीं
उठता तो वह हिम्मत करके उसके पास जाती है और उसकी सांस चल रही है न यह देखती है|
बुखार है तो नहीं देखने के लिए सर पर हाथ रख देती | इससे रामचंद्र उठता तब सिद्धेश्वरी पूछ्ती है
क्या खाना यही पे ला दूं? वह पहले पूछता है कि क्या बाबूजी
ने खाना खा लिया| वह कहती है अब वे आते ही होंगे| तब रामचंद्र उठता है और हाथ-पैर धोकर यंत्र की
तरह खाने के लिए बैठता है| डरते-डरते सिद्धेश्वरी खाने की थाली उसके सामने रख थी और पास में बैठ पंखा करने लगी|
खाने पनियाई डाल, चने की तरकारी और दो रोटियां
थी|
खाना खाते-खाते वह मंझला भाई मोहन के बारे में पूछ्ता है| जिसकी उम्र अट्ठारह वर्ष थी| रंग सांवला और आंखे
छोटी थी| उसके चेहरे पर चेचक के डाग थे वह अपने भाई की तरह
दुबला-पतला था किंतु उतना लंबा नहीं था| उम्र की अपेक्षा
अधिक गंभीर और उदास दिखाई पडता है| जो
इस साल ही हायस्कूल का प्राइवेट इम्तिहास देने की तैयारी कर रहा था|
इसीलिये वह अपने दोस्तों के यहां पढने के लिए गया है ऐसा सिद्धेश्वरी कहती है| वास्तव वह सुबह से कहां गया है
इसका पता सिद्धेश्वरी को भी नहीं| शायद सिद्धेश्वरी अपने बेटे से डरती है|
इसीकारण उसके तरफ वह भय और आतंक से देख रही थी| डरते-डरते ही वह अपने बेटे से पूछ्ती है कि काम पर कुछ हुआ है क्या?
रामचंद्र बडे ही भावहीन आंखो से और नीचे सर करके रुखाई से मां को
कहता है, "समय आने सब ठीक हो जायेगा मां"
वह प्रमोद के बारे में पूछता है| कारण कल प्रमोद रेवडी खाने के लिए जिद्द कर रहा है| जिसके
लिए वह एक घंटे तक रोया था| पर आज वही नहीं रोया ऐसा मां
कहती है| वह बडा होशियार हो गया है| इतने
उसका खाना खत्म होते देख सिद्धेश्वरी उसे रोटी के बारे
में पूछ्ती है| वह कहता है यह अंतिम ग्रास ही मुझे ज्यादा हो
रहा है| अत: रामचंद्र उसमें ही हाथ धो देता है| सिद्धेश्वरी वह भी टुकडा इस तरह खाया जैसे पान का बीडा हो|
इतने में मंझला बेटा मोहन खाने के लिए आता है|
आते ही खाने के लिए बैठता है| मां उसे कहां था
इसके बारे में पूछ्ती है, तब वह अपनी आंखे चुरा लेता है|
मां उसे बताती है कि बडका तुम्हारे बारे में पूछ रहा था| तुम्हारी तारीफ कर रहा था| इसे भी मां और रोटी के
लिए पूछति है वह भी अब भूख नहीं है यह कहकर एक रोटी पर ही अपना खाना पूरा करता है|
इतने में पति मुंशी चंद्रिका प्रसाद राम
का नाम लेते हुए आते है| जिनकी उम्र पैन्तालीस
वर्ष के लगभग थी, किंतु पचास पचपन के लगते थे| शरीर का चमडा झूल रहा था| गंजी खोपडी आयने की भान्ति
चमक रही थी| गंदी धोती के ऊपर तार-तार बना हुआ बनियन पहना था|
पति के आते ही सिद्धेश्वरी ने सिर का पल्लू और नीचे खिसक लिया| आते ही चौकी में
पेढे पर खाना खाने बैठे| खाते समय बडके के बारे में पूछते है|
पंखा हिलाते हुये वह कहती है कि अभी खान खाके के काम पे गया है|
कुछ ही दिनों में नौकरी लग जायेगी कह रहा था| मेरे
बाबूजी देवता है ऐसा भी कह रहा था| उन्हें बहुत ख़ुशी होती है|
आगे वह अपने बेटे की तारीफ करती है| वह दोनों भाईयों पर जान देता है| वह सबकुछ सह सकता
है पर अपने छोटे भाई को कुछ हो जाए यह देख नहीं सकता | मोहन
भी उसकी तारीफ कर रहा था कि शहर में भैया की बडी इज्जत है|
मुंशी कहते है सच है कि बडका दिमान काफी तेज है|
बचपन में हमेशा खेल कुद में लगा रहता पर जो मैं उसे याद करने के लिए
देता, उसे अच्छी तरह याद करता|
पर मेरे तीनों लडके होशियार हैं| तब तक मुंशी
देढ रोटी खा चुके थे| इसके बाद वे एकदम चुपके से खाना खाने
लगते है| इतनी चुप्पी थी कि दूर के आटे की चक्की की पुक-पुक
आवाज आ रही थी और पास के नीम के पेड पर बैठे पंडूक की भी आवाज आ रही थी| परंतु सिद्धेश्वरी बहुत
कुछ बोलना चाहती थी| वह पहले की तरह धड्ल्ले से सभी चीजों पर
बात करना चाहती थी| पर उसकी हिम्मत नहीं होती थी| न जाने उसके मन में कैसा भय समाया हुआ था| उसे रहा
नहीं गया और उसने मालूम होता है| आज बारिश नहीं होगी यह कहते
हुये बात को प्रारंभ किया|इस पर निर्विकार भाव से राय दी मक्खियां बहुत हो गयी है|आगे वह फूफा बीमार है उनका कोई समाचार नहीं आया यह पूछ्ती है| आगे जैसे उसे सूचना देते हुये मुंशी कहते है, गंगाराम
बाबू की लडकी की शादी तय हुई है| लडका एम. ए. है|
बडके की कसम देकर उन्हें और एक रोटी लेने के
लिए कहती है| वे भी रसोईघर देखते है और कहते तुमने कसम क्यों
दी मेरा तो पेट भर गया है| खैर तुम्हारी बात रखने के लिए अगर
घर में गुड है तो थोडा गुड का ठंडा रस बना दो तुम्हारी भी बात रखी जायेगी और जायका
बदल जायेगा और हाजमा भी दुरुस्त हो जायेगा|
मुंशी जी का खाना होने के बाद उनके ही जूठी
थाली में सिद्धेश्वरी अपने लिए खाना परोसती है| थोडी दाल,
चने की तरकारी बची थी | एक जली हुई रोटी बची
थी वह अपनी थाली में ले ही रही थी कि ओसरे पर सोये प्रमोद की ओर उसका ध्यान जाता
है| तब वह आधी रोटी ही थाली में लेती है| रोटी का एक ग्रास मुंह में रखा ही नहीं कि न मालूम कहां से उसकी आंखों से
टप टप आंसू बहने लगे| तब घर में दोनों बेटे भी नहीं थे|
पति बाहर की कोठरी में निश्चितता से सो गये थे| कारण डेढ महिने पूर्व ही वे मकान किराया नियंत्रण विभाग की क्लर्की से
उनकी छंटनी हो गयी थी और उन्हें काम की तलाश में जाना था| अब
घर में केवल मक्खियां भनभन कर रही थी
इसप्रकार कहानी में
मध्यवर्गीय परिवार में लोगों को भरपेट भोजन भी नहीं मिलता| उन्हें
आधा पेट खाना खाकर रहना पडता है| फिर सब एक दूसरे का खयाल
करते है इसमें रिश्तों की आत्मीयता महसूस होती है| इसे इस
कहानी में चित्रित किया है|साथ स्त्री
का अस्तित्व न बराबर ही होता है इसे भी प्रस्तुत कहानी में चित्रित किया है| पुरुषों ने
कमाकर लाना और स्त्री ने घर संभालना इस संस्कृति का भी चित्रण इस कहानी में मिलता
है|
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