ख़ांटी घरेलू औरत- ममता कालिका



 ख़ांटी घरेलू औरत- ममता कालिका 


 ख़ांटी घरेलू औरत- ममता कालिका 

खा-पीकर अपने कृतघ्न पेट पर हाथ फेरते, 

डकार मारते, परिवार के पुरुष ने कहा,

'दुनिया कहां से कहां पहुंच गई, 

पर तुम वहीं की वहीं रहीं,

खांटी घरेलु औरत!

सिर्फ बिजली का बिल बढाने के  लिए 

पडी रहती हो सारा दिन घर में|'

उस रात थोडा रोने और सबके सो जाने के बाद 

उसने गर्म कपडों के ट्रंक में पडी 

अपनी डिग्रियां निकाली

उठाया अखबार, किए आवेदन, हुआ चयन,

आला कुर्सी पर आसीन हुई|

पति ने शातिर चुप्पी साधी, लिए फायदे,

उसको दी कर्तव्य तालिका, और कायदे 

जब मौका मिलता कह देता,

यह बिल्कुल कोरी आई थी,

कस्बे की छोरी आई थी,

मैने जैसे जतन जांगर से गढा, पढाया, योग्य बनाया|

आला कुर्सी तक पहुंचाया|

कितना भी दफ्तर संभाल ले 

नई अक्ल के तीर मार ले 

मैं हूं इसका छवि निर्माता, छाप नियंता,

वह पगली थी

 उसे अभी भी मर्द - समर्थन की तलाश थी,

या यह सदियों से खराश थी|

पुरुष ने कहा, 'आगे आगे बढ चढने की नहीं जरुरत,

रहो पार्श्व में पडी रहो नेपथ्य कोण में 

वही तुम्हारी आभा, शोभा और भविष्य है|' 

उसने अपना आप बांटकर, दो  कर डाला

दफ्तर में वह नीति नियामक, कुशल प्रशासक,

घर में उसकी वही भूमिका, सदियों से जो रहती आई

समझ गयी वह असली विजय यहां पानी है,

बाकी दुनिया बेमानी है|

उसने उंची एडी के सैंडल उतार 

एक बार फिर अपने रंग उडे स्लीपर फन लिए 

वह रसोई में घुसी 

उसने अपनी उंगलियों को नीबू-निचोडनी बनाया

और कलाइयों को सिलबट्टा 

वह पिस गई पुदीने में 

छन गई आटे में 

वह कोना-कोना छंट गयी|

वह कमरा-कमरा बंट गयी|

उसने अपनी सारी प्रतिभा आलू परवल में झोंक दी

और सारी रचनात्मकता रायते में घोल दी

उसने स्वाद और सुगंध का संवत्सर रच दिया 

लेकिन पुरुष ने कभी नहीं कहा उससे 'शुक्रिया'|

         'ख़ांटी घरेलू औरत' ममता कालिका लिखित कविता है| इसमें औरत के प्रति पुरुष प्रधान समाज का जो दृष्टिकोन  है उसे चित्रित किया है| औरत चाहे कितनी भी पढ़-लिख ले, ऊँचे पद पर पहुँच जाए, घर संभाले, सफलता पाए फिर भी समाज और पुरुष-प्रधान मानसिकता उसके योगदान को कभी पूरा सम्मान नहीं देती। उसकी प्रतिभा घर की रसोई में भी और दफ्तर में भी झलकती है| लेकिन उसकी उपलब्धियों का श्रेय पुरुष अपने आप को देता है  और उसे "ख़ांटी घरेलू औरत" (बिल्कुल घरेलु औरत) कहकर उसे छोटा कर देता है। फिर भी स्त्री इसके तरफ ध्यान नहीं देती इसीलिये घर और दफ्तर दोनों में भी सफलता प्राप्त करती है| अत: प्रस्तुत कविता में पुरुषों के कृतघ्न स्वभाव को चित्रित किया है| साथ में स्त्री के समझदार स्वभाव को चित्रित किया है| वह इस प्रकार - 

    कविता में एक ऐसी औरत की कहानी  है, जो पहले घर तक सीमित होती   है।  अर्थात वह बिल्कुल घरेलु औरत है| जिसे लेखिका ने खांटी औरत कहा है| इसका मतलब ऐसी स्त्री जो अपना अधिकतर समय घर के काम-काज, परिवार की देखभाल और घरेलू ज़िम्मेदारियों में लगाती है। वह अपने आप को पूर्णत:अपने परिवार को समर्पित करती है| परंतु उसके इस त्याग का पुरुष को कुछ मतलब नहीं| औरत अपने पति के खाने ने पूरा खयाल रखती है| उसके हाथ का खाना खाकर यही कृतघ्न पुरुष उसे  ताना मारता है कि "दुनिया कहां से कहां पहुंच गयी तुम तो वही की वही रहीं, खांटी घरेलू औरत!" दिनभर घर में पडी रहती हो और बिजली का बिल बढाती हो| पुरुष के इस ताने से उसे दुख होता है कारण परिवार की सेवा में लगी औरत वास्तव में अपने अस्तित्व को भूल केवल परिवार की सेवा करती है| फिर उसका कोई अस्तित्व ही नहीं| तब उसमें स्वाभिमान जागृत होता है|वह अपने भीतर झांकती है और वह रात को सब सो जाने के बाद ट्रंक में रखी अपनी डिग्रियां  निकालती है|वह घर की चारदीवारी से बाहर निकलती है| अखबार निकाल्रकर नौकरी के लिए आवेदन देती है और उंचे पद नियुक्त भी हो जाती है| मूलत: उसमें गुणवत्ता होती है परंतु अपने परिवार के भविष्य के लिए उसने अपने गुणों का त्याग किया होता है| पर जब उसे ताने सुनने पडते है तब  वह अपनी क्षमता तथा  योग्यता को सिद्ध करती है| 

        लेकिन वहाँ भी पुरुष उसका श्रेय खुद लेता है| वह कहता है "मैंने इसे बनाया, गढ़ा, पढ़ाया।" वरना यह तो गांव की अनपढ गवार लडकी थी| मैंने बहुत श्रम से इसे पढाया और उसे तैयार कर योग्य बनाया है| यानी औरत की मेहनत और सफलता को भी पुरुष अपनी उपलब्धि कहता है। आगे वह कहता है औरत चाहे दफ्तर में कितनी ही चतुराई दिखा ले, कितना भी बुद्धि का प्रदर्शन करें पर यह बात वह कभी नहीं भूले कि मैं ही उसका निर्माता हूं|  इस तरह पुरुष उसे महत्व नहीं देता और उसकी सफलता का श्रेय खुद लेता है। 

        इतना ही नहीं तो वह आगे न बढे इसीलिये उसे उसके कर्तव्यों  की बार- बार याद दिलाता है| उसे कायदा सिखाता है कि तुम्हें आगे बढ़कर, नेतृत्व करके या समाज के केंद्र में आने की कोई ज़रूरत नहीं है। तुम्हारी असली जगह है पार्श्व में ही है| यही तुम्हारी असली सुंदरता, शोभा और भविष्य है| इस तरह स्त्री को तुच्छ समझता हुआ  पुरुष आगे ताना देता है कि  यह औरत तो अभी भी नासमझ है।औरत अपनी सफलता, अपने फैसले और अपने अस्तित्व के लिए भी पुरुष पर निर्भर है। मानो बिना पुरुष के सहारे वह टिक नहीं सकती। सदियों से यही होता आया है हमेशा स्त्री को दबाया गया है, पुरुष पर आश्रित बताया गया। यह पीढ़ी-दर-पीढ़ी  यह मानसिकता चली आ रही है| जिसकी  पीडा स्त्री के भीतर जम गयी है|

        फिर भी औरत समझती है कि असली विजय केवल बाहर सफलता पाना नहीं, बल्कि घर और दफ्तर दोनों में अपनी भूमिकाओं को निभाना है। इसीलिये वह अपने अस्तित्व को दो भूमिका में विभाजित करती है| दफ्तर में वह नीति नियामक, कुशल प्रशासक होती है पर घर में आने के बाद वही सदियों से वह जी रही है खांटी घरेलु औरत बन जाती है| परंतु वहां भी वह अपने कुशलता को दिखाती है| केवल एक दिन नहीं तो पूरे सालभर के लिए अलग-अलग प्रकार का स्वाद और महक घर के खाने में भर देती है| इसमें भी उसकी अपनी रचनात्मकता होती है| उसने अपनी मेहनत से हर काम को संभव बनाया। औरत के इस मेहनत को लेखिका ने अनेक प्रतिकों के माध्यम से कविता में समझाया है| जैसे उसने अपनी उंगलियों को नीबू-निचोड़नी बनाया है| अर्थात स्त्री ने अपने हाथों से इतना काम किया कि वे औज़ार की तरह हो गए। यह उसके अत्यधिक श्रम और समर्पण का प्रतीक है।कलाइयों को सिलबट्टा बनाया है| कलाइयाँ भी सिलबट्टे जैसी कठोर मेहनत में लगी रहीं। लेखिका ने यहां यह दिखाया है की घरेलु कामों में उसका शरीर औजार बन गया है| वह पिस गई पुदीने में / छन गई आटे में" अर्थात  घर के काम करते-करते औरत की सारी शक्ति, अस्तित्व और पहचान मानो पिसकर और छनकर रसोई में समा गई।"वह कोना-कोना छंट गयी / वह कमरा-कमरा बंट गयी" औरत ने खुद को घर के हर कोने, हर कमरे में बाँट दिया। उसका जीवन और व्यक्तित्व घर के हर हिस्से में घुल-मिलकर बंट गया"उसने अपनी सारी प्रतिभा आलू-परवल में झोंक दी / और सारी रचनात्मकता रायते में घोल दी" यह सबसे मार्मिक पंक्ति है। इसका भाव है कि औरत की शिक्षा, उसकी प्रतिभा और रचनात्मकता सब कुछ रसोई और भोजन तक सीमित होकर रह गयी है । फिर भी  पुरुष को उसकी कद्र नहीं|  "शुक्रिया" तक नहीं कहता।

        इसप्रकार स्त्री किस हद्द तक अपने परिवार के लिए मेहनत करती है इसका एहसास प्रस्तुत कविता में कर दिया है| फिर भी वह अपने परिवार के परिवेश में जीते हुए, अपनी बात रखती है|अर्थात अपना अस्तित्व बनाती है| वह जितने के लिए और जीवन में आगे बढने के लिए कुछ समय के लिए रुकती है और प्रसंगवश झुकती भी है|परंतु पुरुष को इससे कोई फर्क नहीं पडता है| 

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ