बहानेबाजी - डॉ. भदंत आनंद कौसल्यायन

 बहानेबाजी - डॉ. भदंत आनंद कौसल्यायन

‘बहानेबाजी’ डॉ. भदंत आनंद कौसल्यायन लिखित व्यंग्य  है| जो मनुष्य के बहानेबाजी पर प्रकाश डालती है|बहानेबाजी कौन करता है? क्यों करता है? इसका असर क्या होता है?  बहानेबाही और झुठ में क्या अंतर है?  आदि प्रश्नों का उत्तर दिया गया हैं| 

    प्रारंभ में लेखन ने बहानेबाजी और झूठ में क्या अंतर है, इसपर प्रकाश डाला है| लेखक कहते है कि बीढी और सिगरेट में जैसे बहुत अंतर नहीं हैं वैसे ही बहानेबाजी और झूठ में अंतर नहीं है| परंतु सिगरेट पीना और झूठ बोलना दोनों भी लेखक को पसंद नहीं है| जीवन के हर क्षेत्र में बहानेबाजी और झूठ चलन होता है जैसे धातु का रुपया और कागज के नोट का होता है| खास कर जिस चीज को आप किसी को देना नहीं चाहते ऐसे वक्त जरूर बहानेबाजी होती हैं| सहजता से हम कहते है, “यार, यह चीज मेरी नहीं| अमुक की है| मेरी होती तो आवश्य दे देता| भगवान की कसम अवश्य देता|”

    ऐसी बहानेबाजी के कारण एक अंग्रेज अफसर ने  मुंह की खायी थी| लेखक के मित्र को पुरानी मूर्तियां, चित्र और सिक्के संग्रह करने का बहुत शौक था| उन्होंने देखा कि उनके परिचित मित्र, जो अंग्रेज अफसर थे, उनके पास ऐसी बडी सुंदर मूतिंयां थी| मित्र को वह मूतिंयां चाहिए थी, इसीलिए वह चालाकी करता है और मूर्ती के बदले चित्र की मांग करता है, जिसकी उसे जरुरत बिल्कुल नहीं है| तब साहब बहादुर ऊपर का वाक्य कहता है| बाद में मित्र मूर्ती की मांग करता है, अब की बार साहब बहादुर इन्कार नहीं कर सके, बल्की मूर्ती उन्हें बहुत पसंद थी|  इसप्रकार बहानेबाजी के कारण एक आदमी के लिए काम आसन हो जाता है, तो दूसरे लिए समस्या बन सकता है|  

    ऐसी बहानेबाजी विद्यार्थी दशा में अधिक मात्रा में चलती है| जिसमें पेट दर्द से लेखर मां की बिमारी तक के कारण समाविष्ट  होते है| यह कारण झूठ ही होते हैं, केवल कलात्मक ढंग से बताएं जाते है| अत: बहानेबाजी और झूठ में सूक्ष्म अंतर है| सीधे सरल अयथार्थ कथन का नाम झूठ है, तो टेढे-मेढे कलापूर्ण झूठ का नाम बहानेबाजी है| झूठ में यदि  साहस विशेष जरुरत है तो बहानेबाजी में चतुराई की| मूर्ख आदमी झूठ बोल सकता है किंतु बहाना नहीं बना सकता| झूठ बोलना किसी ग्रंथ का अनुवाद करने जैसा कुछ- कुछ सरल कार्य है किंतु मौलिक रचना की तरह कठिन| दोनों में समानरूप से पकडे जाने का दर है, इसीलिए बुद्धिमान आदमी इससे परहेज करता है| फिर यह बहानेबाजी पीछा करती रहती है| चाहे फिर आप लेखक हो या संपादक| घर और घर से बाहर तक बहानेबाजी का खेल सभी खेलते है| 

बौद्ध वाडमय में बहानेबाजी एक की एक रोचक कथा है, वह भी यह दर्शाती है कि बहानेबाजी अगर पकड ली जाती है, तो उस व्यक्ति का नुकसान ही होता है| 

पूर्व समय में वाराणसी में राजा ब्रम्हदत्त राज्य करता था| उस समय बोधिसत्व एक ब्राह्मण कुल में पैदा हुए| सयाने होने पर बनारस में प्रसिद्ध आचार्य हुए| प्राय: एक सौ राजधानियों से क्षत्रिय , ब्राह्मण आकर उनसे विद्या सीखते थे| ऐसा ही एक जनपद वासी था, जिसने तीनों वेद और अठराह विद्याएं बोधिसत्व से सीखी थी| दिन में दो-तीन बार उनके पास आता था| वह वाराणसी में ही रहता था| परंतु एक बार सप्ताह के बाद वह उनके पास आया था| इसका कारण बोधिसत्व उससे पूछते है| तब वह बताता है कि पत्नी की सेवा में लगा है| उसकी पत्नी को वात रोग हुआ है| उसके अच्छे भोजन का प्रबंध करने में समय बितता है| 

परंतु ब्राह्मणी को कोई रोग नहीं हुआ, कुछ काम न करने का रोग उसे हुआ है, यह बात बोधिसत्व उसे बताते है| इसका उपाय वह बताते है| गोमुत्र में त्रिफला और पांच प्रकार के पत्ते मिलाकर उसका काढा बनाओ और उससे जो औषधि तैयार हो जाए वह पत्नी को देना| अगर वह पीने से इन्कार करें तो छड्डी या रस्सी लेकर  से उसपर प्रहर करो| तब ब्राह्मणी को एहसास होता है कि आचार्य जी को मेरे कुलच्छन का पता चला है| इसीलिए वह उठकर काम करने लगती है| बहानेबाजी झूठ का ही कलात्मक संस्करण है| आदमी लोभ,अज्ञान या भय के कारण करता है| जैसे ब्राह्मणी ने लोभ तथा काम न करने के लिए बहाने बाजी की| परंतु काम न करने से कुछ समय तक चल सकता है, कारण उसके निकम्मेपण की पोल कुछ ही दिनों में अपने आप खुल जानेवाली इसका एहसास अगर आदमी को हो जाए तो वह बहानेबाजी से मुक्त हो सकता है, ऐसा लेखक को लगता है|

इस बहानेबाजी का ऱ्हास भी हो सकता है यदि मनुष्य को सुख अनुभव करने की कला आती है| परंतु मनुष्य की आवश्यकताएं रबड की तरह बढती ही जाती है| उसके लोभ की तो कहीं भी इति नहीं| वह हमेशा चीजों के पीछे भागता रहता है| यदि यही सुख की अनिवार्य शर्त है, तो मानव कभी भी सुखी नहीं हो सकता| मानव को अपने सीमा के अंदर ‘न बहुत थोडी और न बहुत ज्यादा’ आवश्यकताओं पूर्ति हो जाने मात्र से सुख अनुभव करने की कला आनी चाहिए| इस कला का अभ्यास यदि मानव करता है तो निश्चित बहानेबाजी का कुछ ऱ्हास हो सकता है| 

परंतु बहानेबाजी के मूल में भय है| जिसके पहले दो अक्षर ‘ब’ और ‘ह’ है| भय का पहला अक्षर भी ‘ब’ और ‘ह’ के संयोग से बना प्रतीत होता है| अर्थात बहानेबाजी के मूल में ही ‘भय’ है| जैसे - दंड का भय| हमें सच बोलने का उपदेश दिया जाता हैं किंतु दिन-रात के व्यवहार से यह प्रचार-प्रसार भी करते है कि सच बोलने से हमेशा दंड ही मिलता है और झूठ बोलकर आदमी बहुधा दंड से बच जाता है| नौकर देरी से घर लौटने और विद्यार्थी देरी से स्कूल पहुंचने का सच कारण सडक पर होने वाले तमाशे को देखते रहना यह बतायेगा, तो भी उसे डांट - डपट नहीं पडेगी यह विश्वास जब हो जायेगा तब एक भी बहाने बाजी से काम नहीं लेगा| 

फिर भी लेखन कहानी अंत में अपने बहाने बाजी पर व्यंग्य करते हुए कहते है  चाहे कुछ भी हो जाए अपनी बात मनवाने के लिए इन्सान बहानेबाजी करता है| जैसे की लेखक इतनी देर तक बहानेबाजी पर कहते रहे, यह भी एक बहानेबाजी  हो सकती, इसे वह स्वीकार करते है| 

इसप्रकार अज्ञान, लोभ, भ्रम, भय आदि चाहे बहानेबाजी का कौन- सा भी कारण न हो, वह मनुष्य स्वभाव के साथ जुडी है| इसे स्वीकर करना ही पडता है| 


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