फर्क - विष्णु प्रभाकर
'फर्क' विष्णु प्रभाकर लिखित लघु कथा है| जिसमें मनुष्य को उसके प्रकृति प्रदत्त अस्तित्व का परिचय दिया है| निसर्गत: मनुष्य में इन्सानियत होती है, इसका एहसास जनावर मनुष्य को देते है| परंतु जैसे-जैसे मनुष्य बुद्धिशील बना वैसे-वैसे वह अपने प्रकृति प्रदत्त गुणों को भूल गया| उसने अपने आप को राजनीतिक, धार्मिक, ऐतिहासिक आदि अनेक सीमाओं में बांट दिया, जिसके परिमाणस्वरूप मनुष्य मनुष्य के बीच बट गया, वह एक-दूसरे का दुश्मन बन गया| अत: यह सीमाएँ ज़मीन को बाँट सकती हैं, मनुष्य को बांट सकती है पर इंसानियत और प्रकृति बाँटने से परे हैं।अर्थात मनुष्य में इन्सानियत होती है चाहे तो वह शांती और भाईचारे से रह सकता है| जैसे एक प्राणी फर्क करना नहीं जानता वैसे इन्सान भी यह छोड दे तो वह दिन दूर नहीं यह दुनिया सुख-शांती का स्वर्ग बनेगा| पर यह नहीं होता कारण मनुष्य अपने प्रकृति प्रदत्त भावनाओं को ही भूल गया है| इसे व्यक्त करते हुये 'फर्क' कहानी का कथावस्तु लिखी गयी है| जिसका परिचय इसप्रकार -
कहानी का नायक अपने पत्नी के
साथ भारत और पाक सीमा देखने
आया है| उस दिन उसके मन में इच्छा हुई कि भारत और पाक
के बीच की सीमारेखा को देखा जाए, जो कभी एक देश था, वह अब दो होकर कैसा लगता है? दो थे तो दोनों
एक-दूसरे के प्रति शंकालु थे। दोनों ओर पहरा था। बीच में कुछ भूमि होती है जिस पर
किसी का अधिकार नहीं होता। दोनों उस पर खड़े हो सकते हैं। वह वहीं खड़ा था, लेकिन अकेला नहीं था-पत्नी थी और थे अठारह सशस्त्र सैनिक और उनका कमाण्डर
भी। दूसरे देश के सैनिकों के सामने वे उसे अकेला कैसे छोड़ सकते थे! इतना ही नहीं, कमाण्डर ने उसके कान में कहा, "उधर के सैनिक
आपको चाय के लिए बुला सकते हैं, जाइएगा नहीं। पता नहीं
क्या हो जाए? आपकी पत्नी साथ में है और फिर कल हमने
उनके छह तस्कर मार डाले थे।"
उसने उत्तर दिया,"जी नहीं, मैं उधर कैसे जा सकता हूँ?" और मन ही मन कहा-मुझे आप इतना मूर्ख कैसे समझते हैं? मैं इंसान, अपने-पराए में भेद करना मैं जानता
हूँ। इतना विवेक मुझ में है।
वह यह सब सोच रहा था कि सचमुच उधर के सैनिक वहाँ आ पहुँचे। रौबीले
पठान थे। बड़े तपाक से हाथ मिलाया।
उस दिन ईद थी। उसने उन्हें 'मुबारकबाद' कहा।
बड़ी गरमजोशी के साथ एक बार फिर हाथ मिलाकर वे बोल-- "इधर तशरीफ लाइए। हम
लोगों के साथ एक प्याला चाय पीजिए।"
इसका उत्तर उसके पास तैयार था। अत्यन्त विनम्रता से मुस्कराकर उसने
कहा-- "बहुत-बहुत शुक्रिया। बड़ी खुशी होती आपके साथ बैठकर, लेकिन मुझे आज ही वापस लौटना
है और वक्त बहुत कम है। आज तो माफ़ी चाहता हूँ।"
इसी प्रकार शिष्टाचार की कुछ बातें हुई कि पाकिस्तान की ओर से
कुलांचें भरता हुआ बकरियों का एक दल, उनके पास से गुज़रा और भारत की सीमा में दाखिल
हो गया। एक-साथ सबने उनकी ओर देखा। एक क्षण बाद उसने पूछा-- "ये आपकी हैं?"
उनमें से एक सैनिक ने गहरी मुस्कराहट के साथ उत्तर दिया-- "जी
हाँ, जनाब!
हमारी हैं। जानवर हैं, फर्क करना नहीं जानते।"
इस प्रकार यह कहानी
सीमारेखा पर घटित एक छोटे प्रसंग के माध्यम से मानवता, विवेक और कृत्रिम विभाजन की विडम्बना को उजागर
करती है। वैसे तो मानवता का विभाजन नहीं हो सकता पर मनुष्य ने इसे कृत्रिमता से
विभाजित किया है इस पर व्यंग्य इस कहानी में विष्णु प्रभाकर जी ने किया है|
इन्सान भेद करना सिख गया है परंतु स्वभाव जीवन कोई भेद नहीं करता|
यह संदेश इस कहानी में दिया है|
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