हिंदी साहित्य भक्ति परंपरा : गुरु महिमा

 

B.A. II IKS (Specific) अध्ययनक्रम

पेपर का नाम :- हिंदी साहित्य भक्ति परंपरा : गुरु महिमा

इकाई I गुरु परंपरा

             1.1.भारतीय साहित्य : गुरु परंपरा

1.2.हिंदी साहित्य में भक्ति परंपरा

1.3.भक्ति परंपरा में गुरु महिमा

इकाई II गुरु परंपरा

2.1. संत साहित्य में गुरु महिमा

2.2. सूफी साहित्य में गुरु महिमा

2.3. गुरु महिमा की विशेषताएं

प्रश्नपत्र का स्वरूप एवं अंक विभाजन (अंक 50)

प्रश्न 1 :- बहुविकल्पी प्रश्न पांच                                   10 

प्रश्न 2 :- समग्र पाठ्यक्रम पर लघुत्तरी प्रश्न  (में से 2 )  10 

प्रश्न 3:- समग्र पाठ्यक्रम पर दो दीर्घोत्तरी प्रश्न (अंतर्गत विकल्प के साथ  )                                                                              20 

प्रश्न 4 :-  अंतर्गत मुल्यांकन परीक्षा ( गुट चर्चा/ मौखिकी  ) 10 

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भारतीय साहित्य : गुरु परंपरा

भारतीय साहित्य में गुरु परंपरा एक महत्वपूर्ण और प्राचीन परंपरा हैयह परंपरा गुरु और शिष्य के बीच एक विशेष संबंध पर आधारित हैजिसमें गुरु अपने ज्ञानअनुभव और कौशल्य शिष्य को सौंपते हैयह न केवल शिक्षा का माध्यम हैबल्की चरित्र निर्माण और अध्यात्मिक विकास का भी महत्वपूर्ण साधन हैपरिणाम स्वरूप भारतीय साहित्य में गुरु परंपरा चित्रण मिलता हैगुरु परंपरा का तात्पर्य है उन गुरुओं की वंशावली का उल्लेख जिनके द्वारा समाज के उत्थान के लिएज्ञान का प्रकाश पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाने का कार्य किया गया। यह ज्ञान को आगामी पीढ़ियों तक आगे बढ़ाने के उद्देश्य से गुरु द्वारा शिष्य को  हस्तांतरित करने की परंपरा है।इस परंपरा को देखने से पूर्व भारतीय साहित्य किसे कहे यह समझ लेना आवश्यक है

भारतीय साहित्य का स्वरूप:-

भारतीय साहित्य एक व्यापक संकल्पना हैंयदि भारत एक राष्ट्र हैतो भारत में जो कुछ साहित्य (चाहे किसी भी भाषा में) लिखा जाता रहा हैवह भारतीय साहित्य हैभारतीय में जुडा साहित्य शब्द ही उसकी एकता का प्रतिक हैपरंतु इसमें जुडा साहित्य शब्द मनुष्य की आंतरिक अनुभूतियों और संवेदनाओं का अभिव्यक्त रूप होता हैं और मनुष्य की आंतरिक भावनायें समान होती हैंपरिणामस्वरूप साहित्य का मुलभूत ढांचा एक-सा ही दिखाई देता हैंयदि भारत की बात की जाए तो यह ध्यान रखना होगा कि यह देश बहु भाषिक और बहु सांस्कृतिक देश हैंअर्थात भारत की अलग-अलग भाषाओं में जो साहित्य लिखा गया है या लिखा जा रहा हैं उसमें थोडी बहुत भिन्नता के साथ अधिकतर एकता या समानता की स्थिति दिखाई पडती हैं विभिन्न भारतीय भाषाओं के साहित्य की यह एकता या समानता ही भारतीय साहित्य की अवधारणा का केंद्रबिंदु हैइस अवधारणा को मूर्त रूप देने का प्रयास उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से हुआ हैं|

भारतीय साहित्य की अवधारणा के निर्माण में योगदान देनेवाले पहले प्रमुख चिंतक श्रीअरविंद थेजिन्होंने भारतीय साहित्य का मूल स्वर अध्यात्मिक अंतर्दृष्टि को मानाहिंदी के साहित्यिकों में आ. हजारी प्रसाद द्विवेदीडॉ. रामविलास शर्माडॉ. नगेंद्र जैसी हस्तियों ने इस अवधारणा को अपने-अपने तरीके से विकसित किया हैकन्नड के रचनाकार प्रो. यू. आर. अनंतमूर्ति ने जहां भारतीय लेखक की अस्मिता की खोज का प्रश्न उठायावहां वी.के. गोकाक ने भारतीय साहित्य की शैलीकथ्यपटभूमिकाव्य रूपबिंब विधानसंगीत जीवन दर्शन आदि के आधार पर भारतीय साहित्य की चेतना के निर्धारण का प्रयास कियाअर्थात इस अवधारणा में समस्त भारतीयता की पहचान होती हैजो सबको भारतीयता के धागे में बांध कर रखती हैभारतीयता का अर्थ है विविधता में एकताइसी दृष्टि को ध्यान में  रख अनेक विद्वानों ने भारतीय साहित्य को परिभाषित किया है|   

भारतीय साहित्य की परिभाषाएं:-

1) पांडेय शशिभूषण शीतांशु-

          “भारतीय साहित्य का अर्थ आत्मज्ञान को सृजित करनेप्रस्तुत करने और प्रदान करनेवाला साहित्य|”

2) प्रो. दिलीप सिंह के अनुसार:-

          भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में जिन 22 भाषाओं और बोलियों का उल्लेख हैउनका साहित्य अत्यंत संवृद्ध है और यदि ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाए तो इन सभी भाषाओं में साहित्यिक धारायें लगभग समानांतर रूप में प्रवाहित मिलती हैइसके साथ ही इन सभी भाषाओं का राष्ट्रीय चेतना और उसमें आनेवाले परिवर्तनों के साथ एक-सा संबंध रहा है तथा ए सभी राष्ट्रीय स्तर पर हो रहे परिवर्तनों से एक-सा प्रभावित रही है कहने का तात्पर्य यह है कि ऐतिहासिकसामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टि भारत की सभी भाषाएं और उनका साहित्य भी एकता के सूत्र में बंधा हुआ प्रतीत होता है इसीलिये भारत की इन भिन्न भाषाओं में लिखे गए साहित्य को भारतीय साहित्य कहा गया है|”

3) रामविलास शर्मा:-

          इस भारत में किसी भी भाषा में जो भी साहित्य रचा गया हैउस का विवेचन भारतीय साहित्य के अंतर्गत होना चाहिएकिसी भी भाषा के साहित्य का विवेचन अखिल भारतीय परिप्रेक्ष्य में ही करना उचित है...इसीलिए कि इस परिप्रेक्ष्य के बिना हम किसी एक भाषा के साहित्य का विवेचन कर नहीं सकते|”

4) प्रो. भगवान सिंह:-

          हम पाश्चत्य शब्द का व्यवहार एक खास सांस्कृतिक विरासतसोच और जहनियत वाले देशों के लिए करते हैंकोई चीज है जो यूरोपीय चेतना को इस तरह निर्धारित करती है जिसके कारण हम भाषाओं का फर्क भूल कर पाश्चत्य साहित्य की बात करते हैं या यह मान कर चलते हैं कि अलग- अलग भाषाओं में रचा या साहित्य मिजाज के स्तर पर एक ही हैइस सब की प्राणधारा एक ही हैठीक इसी अर्थ में और इतने ही औचित्य के साथ हम भारतीय साहित्य की बात कर सकते हैं|”

5) डॉ. नगेंद्र:-

          इस अंत: साहित्यिक शोध प्रणाली के द्वारा अनेक लुप्त कडियां अनायास ही मिल जायेगीअगणित जिज्ञासाओं का सहज ही अंत हो जायेगासाथ ही भारतीय चिंताधारा एवं रागात्मक चेतना की चेतना की एकता का उद्घाटन हो सकेगा|

6) कृष्ण कृपलानी:-

          भारतीय सभ्यता की तरहभारतीय साहित्य का भी विकासजो एक प्रकार से उसकी सटीक अभिव्यक्ति हैसामासिक रूप में हुआ हैइसमें अनेक युगोंप्रजातियों और धर्मों का प्रभाव परिलक्षित होता है और सांस्कृतिक चेतना तथा बौद्धिक विकास के विभिन्न स्तर मिलते हैं...अत्यंत प्राचीन विकासक्रम के अतिरिक्त इसमें दो अन्य विशेषताएं भी हैं जो संपूर्ण भारतीय साहित्य को अपूर्व गौरव प्रदान करती हैंएक है तीन हजार से अधिक वर्षों तक व्याप्त अखंड सृजन परंपरा और दूसरी है वर्तमान में जीवित अतीत की प्राणवंत चेतना|”

भारतीय साहित्य भारतीय जन गण की तरह विविधता और एकता के परस्पर सूत्रों में बुनी हुई एक सघन इकाई हैअत: इन परिभाषाओं के आधार पर भारतीय साहित्य का अर्थ स्पष्ट होता है कि भारत में भारतीय सभी भाषाओं में लिखा गया साहित्य ही भारतीय साहित्य है|इस तरह भारतीय साहित्य का अर्थ भारतीय भाषाओं के अलग-अलग साहित्यों जैसे तमिलगुजरातीबंगला आदि के स्वतंत्र अस्तित्व का निषेध करना नहीं हैब्लकि उनके स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकारने और उसका सम्मान करते हुए उनमें निहित उस एकसूत्रता की तलाश हैअत: भारतीय साहित्य का तात्पर्य उस विशाल एवं विविध साहित्यिक परंपरा से हैजो भारतवर्ष में विभिन्न भाषाओंधर्मोंसंस्कृतियों और कालखंडों में रची गई है। यह साहित्य केवल मनोरंजन का साधन नहींबल्कि भारतीय जीवन-दर्शनआध्यात्मिकतासामाजिक व्यवस्थासांस्कृतिक मूल्य और मानवीय संवेदनाओं का दर्पण है। अत: भारतीय साहित्य के मूल स्वर में जो संवेदना है उसका एहसास दिलाने के लिए गुरु का विशेष महत्व है इसीकारण भारतीय साहित्य गुरु परंपरा का सहजता से चित्रण मिलता हैइसके पूर्व भारतीय साहित्य के विभाजन पर प्रकाश डालेंगे

भारतीय साहित्य का विभाजन 

भारतीय साहित्य का विभाजन  विविध एवं बहुव्यापी हैजिसे विभिन्न स्तरों पर समझा जा सकता है:

(क) काल के आधार पर विभाजन

 (i) प्राचीन साहित्य (1500 ई. पू. – 500 ई.)

   वेदऋग्वेदयजुर्वेदसामवेदअथर्ववेद

  उपनिषदआत्माब्रह्मामोक्ष जैसे तत्वों का दार्शनिक विवेचन

  महाकाव्यरामायण (वाल्मीकि)महाभारत (व्यास)

  स्मृति ग्रंथमनुस्मृतिधर्मसूत्र आदि

  संस्कृत नाटककालिदास (अभिज्ञान शाकुंतलम्)भासभवभूत

 (ii) मध्यकालीन साहित्य (500 ई. – 1800 ई.)

भक्तिकालसंत-कवियों की रचनाएँ जैसे:

  रामभक्ति शाखातुलसीदास (रामचरितमानस)

  कृष्णभक्ति शाखासूरदासमीरा

  निर्गुण शाखाकबीररैदासदादू

सूफी साहित्यमंझनजायसी (पद्मावत)रसखानअमीर खुसरो

 इस्लामी साहित्यफारसी-उर्दू का प्रसार

(iii) आधुनिक साहित्य (1800 ई. – स्वतंत्रता काल तक)

 उपन्यास और कहानी का उद्भव

 सामाजिक कुरीतियों और स्वतंत्रता संग्राम को विषय बनान

प्रमुख लेखक: प्रेमचंदभारतेन्दु हरिश्चन्द्रबंकिमचंद्र चट्टोपाध्यायटैगोर

 (iv) समकालीन साहित्य (1947 के बाद)

 प्रगतिशील साहित्यसमाजवादवर्गसंघर्षश्रमिक जीवन

 नारीवादी साहित्यस्त्री स्वतंत्रता और अधिकारों पर बल

 दलित साहित्यजातिवाद और सामाजिक भेदभाव के खिलाफ स्व

उत्तर-आधुनिक साहित्यअस्मिता विमर्शवैश्वीकरणतकनीकी युग की चुनौतियाँ

(ख) भाषाओं के आधार पर स्वरूप

संस्कृत साहित्यधार्मिकशास्त्रीय और दार्शनिक ग्रंथों की प्रमुख भाषा।

हिंदी साहित्यआदिकालभक्तिकालरीतिकालआधुनिक काल।तमिल साहित्यसंगम साहित्यभक्ति आंदोलन।

बांग्ला साहित्यटैगोरबंकिमविवेकानंद जैसे युगपुरुषों की देन।उर्दू साहित्यग़ज़लशायरीनज़्मदास्तानगोई।मराठीगुजरातीतेलुगुकन्नड़ आदि सभी की अपनी स्वतंत्र और गौरवशाली परंपराएँ हैं।

(ग) विषयवस्तु के आधार पर स्वरूप

1.      धार्मिक और आध्यात्मिक साहित्य
– वेदपुराणसंत साहित्यसूफी साहित्य

2.      सामाजिक साहित्य
– रूढ़ियों पर प्रहारसुधारवादी आंदोलनजातिगत भेदभाव

3.      राजनीतिक/क्रांतिकारी साहित्य
– स्वतंत्रता आंदोलन को समर्थन देनेवाली कविताएँ और लेख

4.      मानवतावादी एवं समकालीन साहित्य
– स्त्री विमर्शदलित चेतनापर्यावरणतकनीक

(घ) रचनात्मक विधाओं के आधार पर स्वरूप

·        काव्य दोहाचौपाईमुक्तकगीतग़ज़ल

·        गद्य निबंधकहानीउपन्यासजीवनीरेखाचित्र

·        नाटक संस्कृतहिंदीउर्दू नाट्य परंपरा

·        आलोचना साहित्यिक समीक्षाविचार और विमर्श

·        अनुवाद साहित्यएक भाषा से दूसरी भाषा में सांस्कृतिक सेतु का कार्य

            इस तरह भारतीय साहित्य के विविध आयाम दिखाई देते हैइनमें गुरु परंपरा कैसे रही इसपर प्रकाश डालेंगे|

प्राचीन भारतीय साहित्य और गुरु परंपरा का महत्व 

प्राचीन भारतीय साहित्य भारतीय संस्कृति की आत्मा हैं। इसने न केवल भारत के बौद्धिकनैतिक और आध्यात्मिक विकास को आकार दियाबल्कि पीढ़ी दर पीढ़ी ज्ञान के संरक्षण और संवर्धन का भी माध्यम बने।

        प्राचीन भारतीय साहित्य में विविध विधाएं और भाषाएं शामिल हैंजो वेदों से लेकर महाकाव्यउपनिषदधर्मशास्त्रदर्शननीति और काव्य तक फैली हुई हैं। अत: प्राचीन शिक्षा का मुख्य विषय वैदिक साहित्य का अध्ययन ही थाक्रमश: इसमें इतिहासपुराणनाराशंशी गाथाएंखगोल विद्याज्यामिति एवं छंद शास्त्र समाहित हो गयेउपनिषद तथा सूत्रकाल में वैदिक मंत्रो के शुद्ध पाठ पर बल दिया जाता थाइसके साथ शिक्षा केवल विषय ज्ञान ही नहींबल्कि आचरणधर्मसेवा और संयम की भी होती थी।विद्यार्थी गुरु के आश्रम में रहकर शिक्षा प्राप्त करता था।इसीलिए प्राचीन साहित्य में गुरु का महत्व अधिक था

यहां गुरु को ईश्वर के समान स्थान प्राप्त है – “गुरु ब्रह्मा गुरु विष्णुः गुरु देवो महेश्वरः…” प्राचीन काल में लोगों का यह विश्वास था कि गुरु की सेवा के बिना ज्ञान की प्राप्ति संभव नहीं हैउस समय छात्रों के चारीत्रिक गुणों की उन्नति के लिए नैतिक गुणों पर जोर दिया जाता थागुरु शिष्य का संबंध आदर्शात्मक थादोनों का संबंध पिता-पुत्र सा थाआचार्य की उच्चस्थ प्रतिष्ठा का संदर्भ महाभारत से भी मिलता है|मनुस्मृति में कहा गया है कि उपनयन संस्कार के बाद विद्यार्थी का दूसरा जन्म होता हैउसके लिए गुरु सर्वस्व हुआ करते थेअर्थववेद के अनुसार भिक्षा मांगकर जीवनयापन करना विद्यार्थीयों का कर्तव्य थाजातक ग्रंथों से विदित होता है कि कभी-कभी आचर्य अपनी कन्या का विवाह अपने योग्य शिष्य से कर देते थेअर्थात शिष्य के कार्य या अकार्य के लिए गुरु ही उत्तरदायी होते थे|   प्राय: सभी ग्रंथों में गुरु की सेवा शुश्रुषा को शिष्य का पुनित कर्तव्य बताया है|गुरु ज्ञान के माध्यम से शिष्य को अज्ञान से प्रकाश की ओर ले जाता है – “तमसो मा ज्योतिर्गमय”।गुरु केवल पुस्तकीय ज्ञान नहींअपितु आत्मज्ञान का मार्गदर्शक होता हैगुरु बिना शिष्य अधूरा है और शिष्य बिना गुरु – दिशाहीन।

प्राचीन भारतीय साहित्य और गुरु परंपरा 

 1. रामायण में गुरु–शिष्य परंपरा

रामायण में शिक्षा एवं संस्कार का अत्यंत महत्त्व हैऔर गुरु–शिष्य संबंध कई स्तरों पर देखने को मिलते हैं।

राम के गुरु

महर्षि वशिष्ठ – राजगुरुजिन्होंने रामलक्ष्मणभरत और शत्रुघ्न को वेदनीतिधनुर्विद्याराजनीति और धर्मशास्त्र की शिक्षा दी।

महर्षि विश्वामित्र – जिन्होंने राम और लक्ष्मण को वन में ले जाकर दिव्य अस्त्र-शस्त्रों का ज्ञान दियाराक्षसों का संहार करायाऔर अहल्या उद्धारताड़का वध तथा सीता स्वयंवर की घटनाओं में प्रमुख भूमिका निभाई।

2. महाभारत में गुरु–शिष्य परंपरा

भगवान कृष्ण के गुरु – महर्षि संदीपनि

कृष्ण और बलराम ने उज्जयिनी में महर्षि संदीपनि के आश्रम में शिक्षा प्राप्त की।

कृष्ण ने अपने गुरु-दक्षिणा के रूप में संदीपनि के मृत पुत्र को समुद्र से जीवित लौटा दिया।

अर्जुन के गुरु – द्रोणाचार्य

द्रोणाचार्य हस्तिनापुर के राजगुरु थे और उन्होंने कौरव-पांडवों को धनुर्विद्या एवं युद्धकला सिखाई।

अर्जुन को विशेष कृपा प्राप्त थीद्रोणाचार्य ने उन्हें ‘सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर’ बनाने का संकल्प लिया।

3. वैदिक युग के विद्वान – याज्ञवल्क्य और उनकी शिष्याएँ

ऋषि याज्ञवल्क्य – बृहदारण्यक उपनिषद् के महत्त्वपूर्ण दार्शनिक।

गार्गी वाचक्नी – विदुषी ब्रह्मवादिनीजिन्होंने याज्ञवल्क्य से ब्रह्मविद्या पर गूढ़ प्रश्न पूछे (राजा जनक की सभा में)।

मैत्रेयी – याज्ञवल्क्य की पत्नी और शिष्याजिन्हें उन्होंने आत्मविद्या का ज्ञान दिया।

4. आदि शंकराचार्य और उनके प्रमुख शिष्य

आदि शंकराचार्य (8वीं सदी) – अद्वैत वेदांत के प्रवर्तकजिन्होंने चार मुख्य मठ स्थापित किए।

उनके चार प्रमुख शिष्य और उनसे सम्बद्ध मठ –पद्मपादाचार्य असली नाम: सनंदन।

शंकराचार्य के दक्षिणाम्नाय श्रीशृंगेरी मठ (कर्नाटक) के प्रथम पीठाधिपति। "पद्मपाद" नाम इसलिए पड़ा क्योंकि गुरु की सेवा हेतु नदी पार करते समय उनके पैरों के नीचे कमल खिलते गए।

हस्तामलकाचार्य:- असली नाम अज्ञातबाल्यावस्था में ही अद्वैत का पूर्ण बोध था।

शंकराचार्य ने उन्हें पश्चिमाम्नाय द्वारका शारदापीठ का प्रथम पीठाधिपति नियुक्त किया।

तोटकाचार्य:- असली नाम: गोविन्द भगवत्पाद के आदेश पर शंकराचार्य के सेवक-शिष्य।

गुरु-भक्ति के लिए प्रसिद्ध; "तोटक" नाम उनके रचित तोटकाष्टक स्तोत्र से जुड़ा।

उत्तराम्नाय ज्योतिर्मठ (बदरीनाथ) के प्रथम पीठाधिपति। सुरेश्वराचार्य:- पहले कुमारिल भट्ट के शिष्य मंडन मिश्र के नाम से प्रसिद्धफिर शंकराचार्य से अद्वैत की दीक्षा ली।

पूर्वाम्नाय गोवर्धन मठ (पुरीओडिशा) के प्रथम पीठाधिपति।

निष्कर्ष 

 प्राचीन भारतीय साहित्य और परंपरा में गुरु–शिष्य संबंध केवल विद्या के आदान-प्रदान तक सीमित नहीं थेबल्कि वे जीवन-दर्शननीतिआध्यात्मिकता और धर्म के आधार स्तंभ थे।चाहे राम–वशिष्ठ होंकृष्ण–संदीपनि होंअर्जुन–द्रोणाचार्य हों या शंकराचार्य–उनके शिष्य — इन संबंधों में अनुशासनभक्तिऔर समर्पण की गहरी छाप मिलती है। प्राचीन भारतीय साहित्य और गुरु परंपरा न केवल भारत की सांस्कृतिक जड़ें हैंबल्कि संपूर्ण मानवता को भी सत्यकरुणा और ज्ञान का मार्ग दिखाती हैं। आज भी यदि हमें आत्म-उन्नति की राह पर अग्रसर होना हैतो इस परंपरा को समझना और अपनाना अत्यंत आवश्यक है।

मध्यकालीन भारतीय साहित्य और गुरु परंपरा का महत्व 

        भारतीय इतिहास की वह कड़ी है जहाँ आध्यात्मिकताभक्तिसूफीवाद और सामाजिक चेतना का अद्भुत समन्वय देखने को मिलता है। यह काल (लगभग 8वीं से 18वीं शताब्दी तक) सामाजिकधार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यंत परिवर्तनशील थाऔर इसी समय भारतीय साहित्य तथा गुरु परंपरा ने जनमानस को गहराई से प्रभावित किया।इस काल में गुरु परंपरा ने केवल शास्त्र नहींबल्कि समाज को दिशा देने का कार्य किया। गुरु अब केवल ब्राह्मण नहींबल्कि संतफकीरकवी और समाज सुधारक भी बनने लगे।मध्ययुगीन गुरु परंपरा की यह विशेषता रही है कि इस काल के गुरु अब जातिधर्मलिंग से परे समाज के सभी वर्गों से आते थेइन्होंने प्रेम और समर्पण के आधार पर प्रेम और भक्ति को मुक्ति का मार्ग बतायाअनेक गुरुओं ने छुआछुतवर्णभेद और अंधविश्वास का विरोध किया|

मध्यकालीन भारतीय साहित्य और गुरु परंपरा ने समाज को जागरूकसंवेदनशील और एकात्मता की ओर अग्रसर किया। इस युग की सबसे बड़ी देन यह थी कि उसने ज्ञान और अध्यात्म को लोकभाषाओं में जनमानस तक पहुँचाया और गुरु को केवल विद्वान नहींवरन् समाज का मार्गदर्शक और परिवर्तनकर्ता बनाया

भारतीय साहित्यिक और सांस्कृतिक इतिहास में मध्यकाल (लगभग 8वीं से 18वीं शताब्दी) एक ऐसा युग था जब समाज राजनीतिक उथल-पुथलधार्मिक द्वंद्व और सामाजिक असमानताओं से जूझ रहा था। ऐसे समय मेंभक्ति आंदोलन और सूफी परंपरा के संतों और गुरुओं ने जनमानस को प्रेमएकता और आत्मज्ञान की राह दिखाई। इसी युग में साहित्य का रूप बदला — वह लोकभाषा मेंजन-जन के लिए सृजित हुआ। गुरु परंपरा अब केवल विद्याध्ययन तक सीमित न रहकर सामाजिक और आध्यात्मिक जागरण का माध्यम बनी। इस काल में गुरु केवल विद्या देने वाला नहींबल्कि आध्यात्मिक पथ प्रदर्शकसमाज सुधारक और प्रेम का संदेशवाहक बना। गुरु ने शिष्य को जीवन जीने की कला सिखाई।

  मध्यकालीन भारतीय साहित्य में गुरु परंपरा 

मध्यकालीन भारतीय साहित्य – गुरु–शिष्य परंपरा - मध्ययुगीन साहित्य में गुरु शिष्यों की लंबी परंपरा रही हैवह इसप्रकार 

गुरु

प्रमुख शिष्य

रामानंद

कबीररैदाससेनपीपाधन्नाभवानीदास

नरहरिदास

तुलसीदास

वल्लभाचार्य

सूरदासनंददासपरमानंददासकृष्णदास

विठ्ठलनाथ (वल्लभाचार्य के पुत्र)

छित स्वामी , चतुर्भुजदासगोविंदस्वामीकुंभन दास 

चैतन्य महाप्रभु

रूप गोस्वामीसनातन गोस्वामीजीव गोस्वामी

कबीर

धर्मदाससूरती गगन

दादूदयाल

सुन्दरदास

गुरु नानक

भाई लेहणा (गुरु अंगद देव)

निज़ामुद्दीन औलिया

अमीर ख़ुसरो

गोरखनाथ

सिद्धनाथचौरंगीनाथ

वामन भट्ट बाँचन

केशवदास

विद्यापति (कुछ परंपराओं में)

चंद्रदासअनाम शिष्य

निष्कर्ष

मध्यकालीन भारतीय साहित्य और गुरु परंपरा भारतीय जनजीवन की आत्मा बन गए। जहाँ साहित्य ने हृदय को स्पर्श कियावहीं गुरु परंपरा ने आत्मा को दिशा दी। इस युग ने यह सिखाया कि ज्ञान किसी विशेष वर्ग की बपौती नहीं है — वह सबका अधिकार है। आज जब समाज फिर से विघटन की ओर बढ़ रहा हैतब इस काल की भक्तिप्रेम और गुरु-शिष्य परंपरा से प्रेरणा लेने की आवश्यकता है। गुरु को ईश्वर से भी बड़ा माना गया गुरु (मुरशिद) को आत्मा का मार्गदर्शक माना गया प्रेमभक्तिसेवा पर बल प्रेमफना (आत्मविलय)संगीत द्वारा ईश्वर की प्राप्ति|

आधुनिक भारतीय साहित्य  और गुरु परंपरा का महत्व:-

भारतीय  साहित्य की यात्रा वैदिक युग से शुरू होकर आज के आधुनिक युग तक एक सशक्त धारा के रूप में प्रवाहित होती रही है। जैसे-जैसे समय बदलासमाज की चुनौतियाँ और दृष्टिकोण बदलेवैसे ही साहित्य और गुरु परंपरा ने भी नए रूप अपनाए। आधुनिक काल (लगभग 19वीं शताब्दी से वर्तमान तक) में साहित्य केवल भक्तिदर्शन या नीति तक सीमित नहीं रहाबल्कि यह सामाजिक चेतनाराष्ट्रीय भावनाव्यक्तिगत स्वतंत्रतास्त्री विमर्श और वैज्ञानिक सोच का माध्यम बना। इसी के साथगुरु परंपरा भी पारंपरिक गुरुकुलों से निकलकर स्कूलकॉलेजविश्वविद्यालय और आत्मिक मार्गदर्शकों तक विस्तृत हुई।

आधुनिक भारतीय साहित्य की विशेषताएँ

1. राष्ट्रीय चेतना और स्वतंत्रता संग्राम का साहित्य

साहित्यकारों ने ब्रिटिश शासन के विरुद्ध जन-जागरण फैलाने का कार्य किया।

बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय की आनंदमठ (वंदे मातरम्) ने स्वदेश प्रेम को जागृत किया।

भारतेंदु हरिश्चंद्र को हिंदी साहित्य का जनक माना जाता है – उन्होंने सामाजिक जागरण पर ज़ोर दिया।

महादेवी वर्मामैथिलीशरण गुप्तरामधारी सिंह 'दिनकर' आदि कवियों ने राष्ट्रीय अस्मिता को स्वर दिया।

 2. सामाजिक सुधार और यथार्थवाद

जाति प्रथास्त्री-शिक्षाबाल-विवाहविधवा पुनर्विवाह जैसे मुद्दों को साहित्य में उठाया गया।

प्रेमचंद ने गोदानकफनईदगाह जैसे यथार्थवादी रचनाओं के माध्यम से ग्रामीण भारत की पीड़ा दिखाई।

रवींद्रनाथ ठाकुरसुभद्राकुमारी चौहानसआदत हसन मंटोइस्मत चुगताई जैसे लेखक समाज के आईने बने।

3. नवीन विधाएँ और विचारधाराएँ

कथाउपन्यासनाटकलघुकथारिपोर्ताजरेडियो-नाटकआत्मकथा जैसे अनेक साहित्यिक रूप उभरकर आए।

प्रगतिवादनारीवादअस्तित्ववाददलित साहित्यआंचलिक साहित्य जैसे विमर्शों की शुरुआत हुई।

आधुनिक गुरु परंपरा: बदलता स्वरूप

 1. परंपरागत गुरु से आधुनिक शिक्षक तक

पहले गुरु आध्यात्मिक व वैदिक ज्ञान देने वाले होते थेअब विद्यालयों व विश्वविद्यालयों के शिक्षक उनकी भूमिका निभाते हैं।

शिक्षक अब केवल पाठ्यक्रम पढ़ाने वाला नहींबल्कि चिंतनशीलप्रेरणादायक और समाज-निर्माता है।2. आध्यात्मिक गुरु का आधुनिक स्वरूप

स्वामी विवेकानंदरामकृष्ण परमहंसश्री अरविंदमहर्षि रमणओशोसद्गुरुश्री श्री रविशंकर जैसे गुरुओं ने आधुनिक व्यक्ति को ध्यानआत्मज्ञान और जीवन जीने की कला सिखाई।

इन गुरुओं ने पश्चिमी शिक्षा और भारतीय अध्यात्म का संतुलन साधा।

3. गुरु–शिष्य संबंध का नया रूप

आज गुरु–शिष्य संबंध पहले जैसा आश्रम आधारित न होकर विचारोंसंवादोंपुस्तकों और डिजिटल माध्यमों से जुड़ा है।

ऑनलाइन शिक्षावेबिनारयूट्यूब शिक्षकों और मोटिवेशनल स्पीकर्स ने ज्ञान का लोकतंत्रीकरण कर दिया है।

 साहित्य और गुरु परंपरा: अंतर्संबंध

आधुनिक साहित्यकारों ने गुरु के महत्व को कभी नहीं नकारा — उन्होंने गुरु को ज्ञानप्रेरणाविचार और बदलाव का वाहक माना।

प्रेमचंद के 'गुरु जी', महादेवी वर्मा के 'अतीत के चलचित्र', और विवेकानंद के लेखन में गुरु का गौरवमयी चित्रण मिलता है।आधुनिक भारतीय साहित्य में गुरु परंपरा :-

भारतेन्दु युग (आधुनिक काल का आरंभ – 1850 से 1900)

गुरु

शिष्य

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र

       बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’प्रतापनारायण मिश्रश्रीधर पाठक

2. द्विवेदी युग (1900–1920)

गुरु

शिष्य

महावीर प्रसाद द्विवेदी                                

         मैथिलीशरण गुप्त,  माखनलाल चतुर्वेदी,  रामनरेश त्रिपाठी,   बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’

3. छायावाद (1918–1938)

गुरु / प्रेरणा स्रोत

शिष्य / प्रभावित कवि

जयशंकर प्रसाद

हरिवंश राय बच्चनसुमित्रानंदन पंत (प्रारंभिक)

सुमित्रानंदन पंत

 धर्मवीर भारतीगिरिजाकुमार माथुर 

सूर्यकांतत्रिपाठी ‘निराला’

      अज्ञेयनागार्जुन (प्रभावित)

4. प्रगतिवाद (1936–1950)

गुरु       

                         शिष्य

प्रेमचंद  

                यशपालजैनेंद्र कुमारअमृतलाल नागरभगवतीचरण वर्मा

माखनलाल चतुर्वेदी

               भवानीप्रसाद मिश्रशमशेर बहादुर सिंह (कुछ हद तक)

5. प्रयोगवाद – नई कविता – आलोचना (1950 के बाद)
             गुरु                                          शिष्य 

         हजारी प्रसाद द्विवेदी             नामवरसिंह , काशीनाथ सिंह 

       अज्ञेय                                    केदारनाथ सिंह , रघुवीर सहायधर्मवीर भारती 

निष्कर्ष:-

आधुनिक भारतीय साहित्य और गुरु परंपरा समय के साथ विकसित जरूर हुए हैंपर उनकी आत्मा वही रही — सत्य की खोजसमाज का सुधार और आत्मा का उत्थान। जहां साहित्य जनमानस को जगाने का कार्य कर रहा हैवहीं गुरु परंपरा आज भी व्यक्ति को सही मार्ग दिखाने वाली ज्योति बनी हुई है। आज आवश्यकता है कि हम इन दोनों धरोहरों को केवल अध्ययन तक सीमित न रखेंबल्कि जीवन में उतारें।

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 2) हिंदी साहित्य में भक्ति परंपरा

 हिंदी साहित्य में भक्ति परंपरा 14वीं से 17वीं शताब्दी के मध्य विकसित हुई एक महत्वपूर्ण साहित्यिक और आध्यात्मिक धारा थी। यह वह समय था जब समाज में धार्मिक आडंबरजाति-पाति का भेदभाव और कर्मकांड का बोलबाला था। भक्ति आंदोलन ने इन सभी कुरीतियों का विरोध कर प्रेमसमर्पण और समानता पर आधारित एक नया मार्ग दिखाया। अत: भारतवर्ष में भक्ति परंपरा एक युगांतकारी घटना मानी जाती हैकारण इसमें भारत वर्ष का प्रत्येक व्यक्ति मिलजुलकर एक हो गया थाइस परंपरा ने हिंदी साहित्य को समृद्ध करने के साथ-साथ भारतीय समाज और संस्कृति पर भी गहरा प्रभाव डाला। जिसकी विस्तार से जानकारी प्रस्तुत है-

भक्ति की परिभाषा:-

'भक्तिशब्द की व्युत्पत्ति 'भज्धातु से हुई है| 'भक्ति का शाब्दिक अर्थ है- भजन या सेवा करनायस शब्द संस्कृत की ' भज सेवायामधातु से व्युत्पन्न हुई हैशब्दकोशों में भक्ति का अर्थ है पूजाउपासनाअनुराग आदि दिया हैभक्ति का साधारण अर्थ है- आराध्य के गुण एवं स्वरूप की अनन्य भाव से उपासना करना|  इसके अतिरिक्त विभिन्न आचार्यों ने भक्ति की विभिन्न परिभाषाएं दी है -                 

1)  व्यास:-  'पूजादि में प्रगाढ प्रेम होना ही भक्ति है|

2)  गर्ग मुनि :- गुण कीर्तनादि में होनेवाले प्रगाढ प्रेम को ही भक्ति मानते है|                      

3) महर्षि नारद :- भक्ति परमप्रेमरूपा और अमृतस्वरूपा हैजिसे प्राप्त करके मनुष्य सिद्धअमर तथा तृप्त हो जाता हैजैसे- 'सा त्वमसि परमप्रेमाअमृतास्वरूपा च|"                 

4 ) स्वामी शंकराचार्य:- उत्कंठा युक्त निरंतर स्मृति को भक्ति कहा हैइस मत का समर्थन स्वामी रामानुजाचार्य ने भी किया है|                  

5) स्वामी रामानुजाचार्य :- स्नेहपूर्वक किये गये भगवत ध्यान या परमात्मा का निरंतन स्मरण भक्ति है|  

6) श्रीमद भगवत्:- अहेतुक एवं निष्काम भाव से भगवान में अनन्य भाव के साथ अनुरागमय हो जाना ही भक्ति है|"              

7) विष्णुपुराण :- ईश्वर के प्रति साधक में उसी प्रकार की आसक्ति अपेक्षित है जिसप्रकार की आसक्ति अविवेकी पुरुषों की इंद्रिय विषयों में होती है|          

8)शांडिल्य मुनि :- ईश्वर के प्रति परम अनुराग या आत्म में तीव्र रति होना ही भक्ति है|     

9) गोस्वामी तुलसीदास :- हरि भजन में तल्लीन रहने और निष्काम भाव से प्रभु में लीन होकर हृद्य में रामरूपी अमृत का पान एवं रसास्वादन करना भक्ति है|                  

10) आचार्य हज़ारीप्रसाद द्विवेदी-भक्ति भगवद् विषयक प्रेम है। अनुकूल भाव से भगवान के विषय में अनुशीलन करना ही भक्ति है।                  

11) पराशर:-  भक्ति के माध्यम की ओर इंगित करते हुए इन्होंने  'पूजा आदि में अनुराग होनाको भक्ति कहा है।           

12) मध्वाचार्य :-  'भगवान में माहात्म्य ज्ञान पूर्वक सुदृढ़ और सतत स्नेह ही भक्ति है। यह परमप्रेम जो पूर्वज्ञान से उत्पन्न होता है और सर्वदा विद्यमान रहता हैभक्ति कहा जाता है।"     

13) रूप गोस्वामी:- 'ज्ञान और कर्म के प्रभाव से रहित हो किसी प्रकार के फल की इच्छा किये बिना निरंतर कृत्य का प्रेमपूर्वक ध्यान करना ही भक्ति है।                  

14) 'भक्ति रसायन' :- "मन की उस कृति को भक्ति कहते हैं जो आध्यात्मिक साधना से द्रवीभूत होकर ईश्वर की ओर प्रवाहित होती है ।"                 

15) आ. रामचंद्र शुक्ल :- श्रद्धा और प्रेम के योग का नाम भक्ति है

 इन परिभाषाओं के आधार पर कहा  जा सकता है कि भक्ति मानव हृद्य की वह भावना हैजो अनन्य रूप मेंनिष्काम भाव सेआराध्य से तादात्म्य स्थापित करने का प्रयास करती हैसभी परिभाषाओं में एक ही तत्व मौजूद है और वह है ईश्वर के प्रति अनुरागअत: यह कहा जा सकता है कि 'आराध्य के प्रति अनन्य अनुराग ही भक्ति है

 भक्ति परंपरा का उदय :- 

 कोई भी परंपरा तत्कालीन परिस्थिति यों के प्रतिक्रिया स्वरूप निर्माण होती हैभक्ति परंपरा भी एक धार्मिक और सांस्कृतिक आंदोलन है | भक्ति परंपरा का निर्माण होने के पीछे कौन- सी परिस्थिति रही है इसका परिचय यहां दिया है

 हिन्दी के कई विद्वानों का मत है कि हिन्दी साहित्य में भक्ति युग का आविर्भाव राजनीतिक पराजय का परिणाम है जबकि दूसरे कुछ विद्वान इसे एक अविच्छिन्न सांस्कृतिक धार्मिक एवं सामाजिक भावना का परिणाम मानते हैं। इनके लिए यह एक आन्दोलन है और महा आन्दोलन है जो कि भारतीय साधना के इतिहास में अप्रतिम है।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल तथा बाबू गुलाबराय ने भक्ति आन्दोलन को पराजित मनोवृत्ति का परिणाम तथा मुस्लिम राज्य की प्रतिष्ठा की प्रतिक्रिया माना है। आचार्य शुक्ल जी लिखते हैं- "अपने पौरुष से हताश जाति के लिए भगवान की शक्ति और करुणा की ओर ध्यान ले जाने के अतिरिक्त दूसरा मार्ग ही क्या था।" 

        बाबू गुलाबराय का मत है कि "मनोवैज्ञानिक तथ्य के अनुसार हार की मनोवृत्ति में दो बातें सम्भव हैं या तो अपनी आध्यात्मिक श्रेष्ठता दिखाना या भोग-विलास में पड़कर हार को भूल जाना। भक्तिकाल में लोगों में प्रथम प्रकार की प्रवृत्ति पाई गई।"

        इधर कतिपय पाश्चात्य विद्वानों ने भी भारतीय धर्म साधना में भक्ति का उदय कब हुआ और क्यों हुआइस विषय पर अपने विचार अभिव्यक्त किये हैं। पाश्चात्य विद्वान वेवरकीथग्रियर्सन तथा विल्सन आदि ने भक्ति को ईसाई धर्म की देन बताया है। वेवर महोदय ने महाभारत में वर्णित 'श्वेत द्वीपका अर्थ गौरांग जातियों का निवास स्थान (यूरोप) करते हुए तथा जयन्तियाँ मनाने की प्रथा का संबंध ईसाइयत से स्थापित करते हुए भारतीय भक्ति-भावना को ईसाई धर्म के प्रभाव से विकसित सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। 

        आचार्य ग्रियर्सन का कहना है कि ईसा की दूसरी-तीसरी शताब्दी में कुछ ईसाई मद्रास आकर बस गये थे जिनके प्रभाव से भक्ति का विकास हुआ। प्रो. विल्सन ने भक्ति को अर्वाचीन युग की वस्तु सिद्ध करते हुए कहा कि विभिन्न प्रतिष्ठा के लिए इसका प्रचार किया। एक अन्य पाश्चात्य विद्वान ने कृष्ण को क्राइस्ट का रूपान्तर कहकर अपनी कल्पना-शक्ति का परिचय दिया है। कहने वालों ने तो (डॉ. ताराचन्दहुमायूंकबीर तथा डॉ. आबिद हुसैन) यहां तक भी साहस कर दिया कि समूचे का समूचा भारतीय भक्ति आन्दोलन मुस्लिम संस्कृति के संपर्क की देन है और शंकराचार्यनिम्बार्करामानुजरामानन्दबल्लभाचार्यआलवार सन्त तथा वीरशैव और लिंगायत आदि शैव सम्प्रदायों की दार्शनिक मान्यताओं पर मुस्लिम प्रभाव है। इन उपर्युक्त लब्धप्रतिष्ठ विद्वानों के विचारों को देखकर ऐसा लगता हैजैसे कि भारत की पुष्कल दार्शनिक विचारधारा का मूल आधार इस्लाम ही हो और मुस्लिम सम्पर्क से पूर्व जैसे कि भारत देश का निजी कोई दर्शन ही नहीं था। अस्तुइस विषय में हमें दृढ़ता से स्मरण रखना होगा कि शंकर के अद्वैतवाद और मुसलमानों के एकेश्वरवाद में वृहद् अन्तर है तथा अन्य धर्माचार्यों की दार्शनिक सरणि भी मुस्लिम संपर्क की प्रतिक्रिया से जन्य नहीं है। ऐसी धाराओं का प्रचार कदाचित् हिन्दू-मुस्लिम एकता तथा राष्ट्रीयता के प्रचार के उद्देश्य से किया गया लगता है। इस प्रकार के अतिरंजक कथन नितांत भ्रामक और अविश्वसनीय हैं। हमारा ऐसे विद्वानों से विनम्र निवेदन है कि सत्य के आलाप की कीमत पर तथाकथित राष्ट्रीय एकता का प्रचार वांछनीय नहीं है।

        अस्तुहमारे भारतीय विद्वानों-श्री बालगंगाधर तिलकश्रीकृष्ण स्वामी आयंगर और डॉ. एच. राय चौधरी ने पाश्चात्य विद्वानों के उक्त मतों का युक्तियुक्त खण्डन करते हुए भक्ति का मूलोद्गम प्राचीन भारतीय स्रोतों से सिद्ध किया है। उपर्युक्त भ्रामक मान्यताओं को देखते हुए हमें ऐसा लगता है कि इन सबके मूल में किसी भी भारतीय वस्तु को महत्त्वहीन सिद्ध करने की दुरभिसंधि है और कुछ भी नहीं है।

        आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी हिन्दी साहित्य में भक्ति के उदय की कहानी को न तो पराजित मनोवृत्ति का परिणाम मानते हैं और न ही इसे मुस्लिम राज्य की प्रतिष्ठा की प्रतिक्रिया। उनका कहना है- "यह बात अत्यंत उपहासास्पद है कि जब मुसलमान लोग उत्तर भारत के मन्दिर तोड़ रहे थे तो उसी समय अपेक्षाकृत निरापद दक्षिण में भक्त लोगों ने भगवान् की शरणागति की प्रार्थना की। मुसलमानों के अत्याचार से यदि भक्ति की भावधारा को उमड़ना था तो पहले उसे सिन्ध में और फिर उसे उत्तर भारत में प्रकट होना चाहिए थापर हुई दक्षिण में।" और फिर ऐसी भी बात नहीं है कि सभी मुसलमान शासक अन्यायी और अत्याचारी थे। उनमें बहुत से परम सहिष्णु और उदार भी थे। उनके द्वारा संस्कृतिसाहित्य और कला को पर्याप्त प्रोत्साहन मिला। यदि मुसलमान शासकों के बलात् इस्लाम प्रचार की प्रतिक्रिया के रूप में भारत में भक्ति का उदय हुआ तो उसी समय एशिया और यूरोप के अन्य देशों में भी समान पद्धति से इस्लाम का प्रचार किया गयातब वहां भी भक्ति का उदय होना चाहिए थापर हुआ नहीं। यह भी बात नहीं है कि उस समय भारत के लिए मुसलमानों का संपर्क नया था। भारत पहले से ही कन्धार (सीस्तान) के मुसलमानों के चिर-संपर्क में था। राजपूत नरेश अंतिम दम तक स्वाधीनता के लिए प्राण-पण से जूझते रहे और उनमें से अनेक स्वतंत्र भी रहे। वहां किसी प्रकार की निराशा नहीं थीतब वहां निराशा और वेदनाजन्य भक्ति कैसे प्रवाहित हो उठीहिन्दू सदा आशावादी रहा। उसका सुखान्त साहित्य उसके आनन्दवादी दृष्टिकोण का सूचक है। हिन्दू जाति अपनी जीवन शक्ति के लिए विशेष प्रसिद्ध है। उसमें विषम से विषम परिस्थितियों में भी जीवित रहने की शक्ति रही है। शंकररामानुजाचार्यमध्वाचार्यविष्णु स्वामीनिम्बार्करामानन्दचैतन्य औरवल्लभाचार्य प्रायः ये सभी आचार्य मुस्लिम युग की उपज हैंपर वे सदा देश की राजनीतिक परिस्थितियों से निर्लिप्त रहे हैं। कबीरनानकसूरतुलसीनन्ददास तथा जायसी आदि की भी यही दशा है। इनका साहित्य उल्लासमय प्राणों के स्फूर्तिमय स्पन्दन से संवलित हैइसमें निराशा की छाया तक नहीं। यदि राजनीतिक पराजय ही भक्ति के उदय का ऐकान्तिक कारणे होता तो जायसी कुतुबनमंझनउसमान आदि सूफी कवि एवं कबीर नहीं होते इन भक्तिकालीन मुसलमानों द्वारा भक्ति-पद्धति को अपनाने के लिए। अतः यह तर्क उपस्थित नहीं किया जा सकता।

        हमें यह भी भूलना नहीं होगा कि भक्ति एक परमोच्च साधना का फल है जिसके लिए परम शान्त वातावरण अनिवार्य है। इसके लिए संघर्षमय वातावरण अपेक्षित नहीं है और न ही यह हारी मनोवृत्ति की उपज है। यदि ऐसा होता तो अंग्रेजी शासन की स्थापना के समय भी इसे प्रस्फुटित हो जाना चाहिए था। भक्ति जैसी शुद्ध निर्मल भावना का संबंधशुद्धातःकरण की पराकाष्ठाप्त सात्विकता पर अवलंबित है। इस परम स्पृहणीय भावना को तलवार के प्रहार या अन्य किसी बाह्य बलात्मक उपकरण से उद्भूत नहीं किया जा सकता है। यही कारण है कि निरन्तर आक्रमणोंप्रलोभनों तथा अन्य विविध विकर्षणमय माध्यमों सेआक्रान्ता लोग निजामीष्ट को प्राप्त नहीं कर सके। 'भक्ति द्राविड़ी उपजीके गहन रहस्य को पुनः आंकने की आवश्यकता है। दक्षिण की भक्तिन अन्दाल का पांडुरंग की मूर्ति में समावेशविष्णु के साथ विवाह और भगवान् कृष्ण में उसकी दाम्पत्य भाव से मीरा जैसी तल्लीनता. आदि की जनश्रुतियों के गर्भ में बहुत बड़ा रहस्य निहित है। इस संदर्भ में भगवद्गीता के बारहवें अध्याय में प्रतिपादित सगुणता की सहजा व निर्गुण की कृछ साध्यता विचारणीय हैं। "जो मेरे गुणातीत निर्गुण रूप का या सगुण रूप का यदा-कदा सेवन करता हैवह अपने पांव की पवित्र धूलि से सूर्य के सदृश तीनों लोकों को पुनील कर देता है।" (अध्यात्म रामायणउत्तर कांड)

        अतः भक्ति का उदय न तो नैराश्यजन्य परिस्थितियों का परिणाम है और न ही भारत देश की हारी हुई मनोवृत्तियों की उपज। विदेशी आक्रमण (जिसकी चर्चा वल्लाभाचार्य और गुरु नानकदेव जी ने की है) मात्र एक लघु सा निमित्त कारण हैं। उसे समवायी या उपादान कारण नहीं कहा जा सकता। भारतीय भक्ति आन्दोलन को विदेशियों के निरन्तर आक्रमणों से उत्पन्न निराशा का परिणाम कहना या इसे हारी हुई मनोवृत्ति का परिपाक बताना भारतीय सांस्कृतिक विकास के इतिहास के प्रति घोर अन्याय होगाऔर भारतीय इतिहास की बड़ी भारी विडंबना होगी।

        बाबू गुलाबराय का भक्ति युग को हारी मनोवृत्ति का परिणाम तथा मुस्लिम राज्य की प्रतिक्रिया कहना नितांत असमीचीन है। भक्ति काव्य में भारतीय संस्कृति और आचार-विचार की पूर्णतः रक्षा हुई है। भक्ति काव्य जहां उच्चतम धर्म की व्याख्या करता हैवहां उसमें उच्च कोटि के काव्य के भी दर्शन होते हैं। उसकी आत्मा भक्ति हैउसका जीवन-स्रोत रस हैउसको शरीर मानवीय है। रस की दृष्टि से भी यह काव्य श्रेष्ठ है। यह साहित्य एकसाथ हृदयमन और आत्मा की भूख को तृप्त करता है। यह काव्य लोक तथा परलोक को एकसाथ स्पर्श करता है। यह साहित्य शक्ति का साहित्य हैइसमें आडम्बर-विहीन एवं शुचितापूर्ण सरल जीवन की झांकी है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी बाबू गुलाबराय के मत का खंडन करते हुए लिखते हैं- "कुछ विद्वानों ने इस भक्ति आंदोलन को हारी हुई हिन्दू जाति की असहाय चित्त की प्रतिक्रिया के रूप में बताया है। यह बात ठीक नहीं हैप्रतिक्रिया तो जातिगत कठोरता और धर्मगत संकीर्णता के रूप में प्रकट हुई थी। उस जातिगत कठोरता का एक परिणाम यह हुआ कि इस काल में हिन्दुओं में वैरागी साधुओं की विशाल वाहिनी खड़ी हो गई क्योंकि जाति के कठोर शिकंजे से निकल भागने का एकमात्र उपाय साधु हो जाना ही रह गया था। भक्ति मतवाद ने इस अवस्था को संभाला और हिन्दुओं में नवीन और उदार आशावादी दृष्टि प्रतिष्ठित की।" वस्तुतः भक्तिकाल कासाहित्य प्राचीन दर्शन-प्रवाह की एक अविच्छिन्न धारा है। जातिगत कठोरता और धार्मिक संकीर्णता की प्रतिक्रिया कुछ अंशों में इस भक्ति आंदोलन में अवश्य हुई। जब हिन्दू धर्म मुस्लिम जाति के संपर्क में आया तो उसमें पतितपावनी पाचन शक्ति का ह्रास हो चुका थाजबकि नवागत धर्म जाति-पाति के बंधनों से दूर था। हिन्दू धर्म इस दिशा में अधिकाधिक संकीर्ण तथा कठोर होता गया। इस प्रकार एक तो बौद्ध सिद्धों एवं नाथ योगियों के संपर्क में आये। बहुत से हिन्दू पहले ही जातिच्युत हो चुके थेदूसरे इस्लाम के संपर्क में आने पर कुछ और हिन्दू जाति-पाति के कठोर नियमों के कारण बाहर आये। आचार्य द्विवेदी इस शोचनीय दशा का वर्णन इन शब्दों में करते हैं-"इस कसाव का परिणाम यह हुआ कि किनारे पर पड़ी हुई सारी जातियां छंट गईं और बहुत दिनों तक न ही हिन्दू रहीं न ही मुसलमान हो सकीं। बहुत-सी पाशुपत मत को मानने वाली और संन्यास से गृहस्थ बनी जातियां धीरे-धीरे मुसलमान होने लगीं। इस प्रकार की जुलाहा जाति नाथ मत को मानने वाली थीजो निरन्तर उपेक्षित रहने के कारण क्रमशः मुसलमान होती गई। इस जाति में मध्यकाल में स्वाधीनचेता सन्त कबीर उत्पन्न हुए।"

    आचार्य द्विवेदी भक्ति-आंदोलन पर ईसाई प्रभाव की चर्चा करते हुए लिखते हैं- "इस प्रकार के अवतारवाद का जो रूप हैइस पर महायान संप्रदाय का विशेष प्रभाव है। यह बात नहीं कि प्राचीन हिन्दू चिन्तन के साथ उसका संबंध एकदम है ही नहींपर सूरदासतुलसीदास आदि भक्तों में उसका जो स्वरूप पाया जाता हैवह प्राचीन चिन्तनों से कुछ ऐसी भिन्न जाति का है जो कि एक जमाने में ग्रियर्सनकेनेडी आदि पाश्चात्य विचार-दर्शन की श्रेष्ठता प्रतिपादित करने वाले पंडितों ने उसमें ईसाईपन का आभास पाया था। उनकी समझ में नहीं आ सका कि ईसाई धर्म के सिवाय इस प्रकार के भाव और कहीं मिल सकते हैं। लेकिन आज की शोध की दुनिया बदल गई है। ईसाई धर्म में जो भक्तिवाद है वही महायानियों की देन सिद्ध होने को चला है। क्योंकि ऐसे बौद्धों का अस्तित्व एशिया की पश्चिमी सीमा में सिद्ध हो चुका है और कुछ पंडित तो इस प्रकार के प्रमाण पाने का दावा करने लगे हैं कि स्वयं ईसा मसीह भारत के उत्तरी प्रदेशों में आये थे और बौद्ध धर्म में दीक्षित भी हुए थे" (हिन्दी साहित्य की भूमिका)। डॉ. रामरतन भटनागर ने मध्य युग के भक्ति आंदोलन को पौराणिक धर्म का पुनरुत्थान माना है। वे लिखते हैं- "मध्य युग के भक्ति-आंदोलन को हम पौराणिक धर्म के पुनरुत्थान का आंदोलन भी कह सकते हैं। वस्तुतः गुप्तों के युग में विष्णु और लक्ष्मी को लेकर जिन धार्मिक भावनाओं का विकास हुआ था वे ही इस युग में राधा-कृष्ण और सीता-राम के माध्यम से विकसित हुई।" कुछ विद्वानों ने भक्ति और अवतारवाद के बीज वैदिक साहित्य में खोज निकाले हैं। "वैदिक स्तुतियों में दूसरा वैष्णव तत्त्व श्रद्धा का है। वहां श्रद्धा व यज्ञ को एक माना गया है। श्रद्धांविश्वासदीनताकृतज्ञताआराध्य-यश-वर्णनअवलम्ब की खोज में भक्ति के तत्त्व वैदिक मन्त्रों में सुरक्षित हैं।" डॉ. भण्डारकर ने अवतारवाद की भावना को वैदिक साहित्य में स्वीकार किया है। वे लिखते हैं- "आईएफ थिज वेदिक गोड्स अरे ननवन गॉड मई बिकम सेवरल. दिस एलईडी तो द कांसेप्शन ऑफ़ इनकारनेशन."

        डॉ. सत्येन्द्र भक्ति का उद्भव द्राविड़ों से मानते हैंदक्षिण के वैष्णव भक्तों से नहीं। वे लिखते हैं- "भक्ति द्राविड़ी उपजी लाये रामानन्द।" इस उक्ति के अनुसार भक्ति का आविर्भाव द्राविड़ों में हुआ। उक्ति-कर्ता सम्भवतः नहीं जानता था कि वह इन शब्दों पर कितने गहरे सत्य को प्रकट कर रहा है। उसका द्राविड़ से अभिप्राय संभवतः दक्षिण देश से ही थाकिन्तु जैसा संकेत किया जा चुका हैनई प्रागैतिहासिक खोजों में यह सिद्ध-सा होता है कि भक्ति का मूल द्राविड़ों में है और दक्षिण के द्राविड़ों में ही नहींउनके महान् पूर्वज मोहनजोदड़ो और हड़प्पा के द्राविड़ों में भी। अभी संसार को जितने भी प्रमाण प्राप्त हैंउनसे यह सिद्ध होता है कि मोहनजोदड़ो और हड़प्पा के द्राविड़ अथवा व्रात्य एकेश्वरदारी थे। उनके ईश्वर का नाम शिव था ।... आर्यों ने भक्ति का भावदक्षिण से प्राप्त किया था।" अस्तु! भारतीय धर्म-साधना के क्षेत्र में भक्ति की परम्परा सुदीर्घ काल से चली आ रही है। भक्ति का प्रतिपादन महाभारत और गीता में स्पष्ट रूप से हुआ है। महाभारत के शांति-पर्व में तथा भीष्म-पर्व में नारायणोपाख्यान का वर्णन है। वस्तुतः पौराणिक धर्म पूर्ववर्ती भागवत धर्म का ही एक ऐसा नव-परिवर्द्धित रूप थाजिसमें एक ओर भक्ति-भावना को प्रमुख स्थान दिया गया और दूसरी ओर उनमें ऐसे तत्त्वों का समावेश हुआ जिससे वह जैन और बौद्ध धर्म की प्रतिस्पर्धा में टिक सके। नारद-भक्ति-सूत्र में भक्ति के स्वरूप कासांगोपांग विवेचन किया गया है। शांडिल्य-भक्ति-सूत्र रचना-काल की दृष्टि से इससे भी पूर्व ठहरता हैपर उसमें विवेचन संबंधी स्पष्टता नहीं। जहां भक्ति के सैद्धांतिक स्वरूप का विकास सूत्र-ग्रंथों में हुआ वहां उसके व्यावहारिक रूप के विकास का प्रयत्न पुराण साहित्य के द्वारा संपन्न हुआ। यह सारा कार्य गुप्त सम्राटों के शासन काल में हुआ। भागवतपुराण की रचना दक्षिण भारत में हुई या नहींइस विवाद में न पड़ते हुए यह तो स्वीकार करना ही पड़ता है कि ठेवीं-9वीं शताब्दी तक दक्षिण भारत में पौराणिक धर्म का प्रचार हो चुका था। भले ही कुमारिल और शंकर के अकाट्य तर्कों ने सगुण स्वरूप भक्ति के विकास में कुछ व्यवधान खड़ा किया हो। किन्तु दक्षिण भारत के वैष्णवों ने भक्ति के संरक्षण का पूरा-पूरा प्रयत्न किया। दक्षिण भारत में आलवार भक्त हुए जिन्होंने शंकर के अद्वैतवाद की कोई परवाह न करते हुए भक्ति की धारा को प्रवहमान रखा। आचार्य द्विवेदी ने भक्ति आंदोलन का श्रेय दक्षिण के इन आलवार भक्तों को दिया है। इनकी संख्या बारह मानी जाती हैजिनमें बहुत सारे ऐतिहासिक व्यक्ति सिद्ध हो चुके हैं। इन भक्तों में आन्दाल नाम की एक भक्तिन हो चुकी थीजो मीरा के समान कृष्ण को अपना पति मानती थी और वह कृष्ण के भीतर विलीन हो गई थी। इन भक्तों का समय ईसा की प्रथम शताब्दी बल्कि इससे कुछ पूर्व से लेकर 8वीं-9वीं शताब्दी तक आंका गया है। इन भक्तों में भक्ति का व्यावहारिक पक्ष है। अनुमान है कि भक्ति का सिद्धांत-पक्ष बहुत पहले से चला आ रहा होगा। 10वीं-11वीं शताब्दी में आचार्य नाथमुनि हुएजिन्होंने वैष्णवों का संगठनआलवारों के भक्तिपूर्ण गीतों का संग्रहमन्दिरों में कीर्तन एवं वैष्णव सिद्धांतों की दार्शनिक व्याख्या आदि महत्त्वपूर्ण कार्य किये जिनसे भक्ति-परम्परा को एक नया बल मिला। इनके उत्तराधिकारियों में रामानुजाचार्य हुएइन्होंने विशिष्टाद्वैतवाद की स्थापना की। उन्होंने भगवान् विष्णु की उपासना पर बल देते हुए दास्य भाव की भक्ति का प्रचार किया। इसी परम्परा में रामानन्द हुएजिन्होंने राम को अवतार मानकर उत्तरी भारत में राम-भक्ति का प्रवर्तन किया। आगे चलकर इसी भक्ति शाखा में कृष्ण-भक्ति की-सी रसिकता का समावेश हुआ और राम-रसिक संप्रदाय चल निकला।

        दूसरी ओरअद्वैत के प्रवर्तक मध्वाचार्यद्वैत के संस्थापक निम्बार्काचार्य और शुद्धाद्वैत के संस्थापक वल्लभाचार्य थे। मध्वाचार्य ने शंकर के मायावाद का खंडन किया और विष्णु भक्ति का प्रचार किया। निम्बार्क ने लक्ष्मी और विष्णु के स्थान पर राधा और कृष्ण की भक्ति का प्रचार किया। वल्लभाचार्य ने बालकृष्ण की उपासना पर बल दिया और पुष्टिमार्ग का प्रवर्तन किया। चैतन्य महाप्रभु चैतन्य संप्रदाय केस्वामी हरिदास सखी संप्रदाय के और हितहरिवंश राधावल्लभ संप्रदाय तथा शुद्धाद्वैत के संस्थापक वल्लभाचार्य हुए। मध्वाचार्य ने राधावल्लभ संप्रदाय के माध्यम से कृष्ण भक्ति में माधुर्य के भाव का प्रचार किया। सूर इस परंपरा के एक उज्ज्वल रत्न हैंजिन्होंने कृष्ण की स्तुति में अपने हृदय की समस्त सात्विक ऊर्जा उड़ेल दी। बाद मेंराधा और कृष्ण को गंभीर सौंदर्यात्मक रूपों में चित्रित किया गया।

    मुसलमानों में छुआछूत तथा ऊंच-नीच का भाव नहीं था। तत्कालीन बौद्ध-सिद्धों तथा नाथ योगियों के धर्म में भी इस प्रकार का कोई बंधन नहीं था। इन दोगियों ने ईश्वर को घट के भीतरबतायाकर्मकांड को निःसार और वेदाध्ययन को ढकोसला बताया और यौगिक प्रक्रियाओं पर विशेष बल दिया। इन लोगों ने सन्त मार्ग के लिए बहुत कुछ भूमि तैयार कर दी थी। महाराष्ट्र के प्रसिद्ध भक्त नामदेव ने हिन्दू-मुसलमानों के लिए सामान्य भक्ति मार्ग की स्थापना की। आगे चलकर कबीरदादूनानक आदि सन्तों ने भक्ति का ऐसा रूप विकसित कियाजिसमें ईश्वर की सगुण-निर्गुण-मिश्रित रूप की उपासना की गई। यद्यपि हमारे विद्वान् उन्हें सैद्धान्तिक दृष्टि से निर्गुण एकेश्वरवादी या रहस्यवादी बताते हैं परन्तु व्यावहारिक दृष्टि से इनकी उपासना में प्रायः वे सभी विशेषताएं मिलती हैंजो भक्ति की मूलाधार हैंअतः हम इन सन्तों को भी भक्ति आंदोलन के उन्नायकों में स्थान देना उचित समझते हैं।

    इंस काल में कुछ सूफी मुसलमान हुए जिन्होंने हिन्दू घरों की प्रेम-कहानियों के माध्यम से ईश्वर के प्रेम-स्वरूप का प्रचार किया। इस प्रकार इन लोगों ने हिन्दू-मुस्लिम हृदयों के अजनबीपन को मिटाया। सांस्कृतिक द्वन्द्व के उपरांत सांस्कृतिक समन्वय हुआ। दक्षिण भारत में तो भक्ति की यह अजस्त्र धारा प्रबल वेग से चल ही रही थीकिन्तु उत्तर भारत में भी पौराणिक धर्म का प्रचार पहले से ही था। गहड़वार राजाओं के समय उत्तर भारत प्रधान रूप से स्मार्त धर्मावलम्बी था। सगुण भक्ति के आवश्यक उपकरण-वैयक्तिक संबंध का ईश्वर के प्रति होना तथा अवतारवाद पर विश्वास की भावनाएं इस प्रदेश की जनता में बद्धमूल थीं। अतः भक्ति का बिरवा ऐसा नहीं हैजो कि विदेश से लाया गया हो अथवा विधर्मियों द्वारा इसका सिंचन और पल्लवन हुआ हो। न तो यह निराशा-प्रवृत्तिजन्य है और न ही किसी प्रतिक्रिया का फल। वस्तुतः यह एक प्राचीन दर्शन-प्रवाह और प्राचीन सांस्कृतिक परम्परा की एक अविच्छिन्न धारा है। इस धारा का प्रस्फुटन आकस्मिक नहीं हुआइसके लिए तो सुदीर्घ काल से सहस्रों मेघ खण्ड एकत्रित हो चुके थे। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी भक्ति साहित्य के संबंध में लिखते हैं- "समूचे भारतीय इतिहास में अपने ढंग का अकेला साहित्य है। इसी का नाम भक्ति साहित्य है। यह एक नई दुनिया है।" भक्ति युग का आंदोलन एक ऐसा आंदोलन हैजो इन सब आंदोलनों से कहीं अधिक व्यापक और विशाल हैजिन्हें भारतवर्ष ने कभी भी देखा है। यहां तक कि वह बौद्ध धर्म के आंदोलनों से भी अधिक व्यापक और विशाल है क्योंकि इसका प्रभाव आज भी वर्तमान है। यह साहित्य एक महती साधना और प्रेमोंल्लास के देश का साहित्य हैजहां जीवन के सभी विषादनैराश्य और कुंठाएं जुड़ जाती हैं। भारतीय जनता भक्ति साहित्य के श्रवण-श्रावण से उस युग में भी आशान्वित होकर सान्त्वना प्राप्त करती रही है और भविष्य में भी यह साहित्य उसके जीवन का संबल बना रहेगा। डॉ. द्विवेदी के शब्दों में- "नया साहित्य (भक्ति 'साहित्य) मनुष्य जीवन के एक निश्चित लक्ष्य और आदर्श को लेकर चला। यह लक्ष्य हैभगवद्भक्तिआदर्श है शुद्ध सात्विक जीवन और साधन है भगवान् के निर्मल चरित्र और सरल लीलाओं का गान। इस साहित्य को प्रेरणा देने वाला तत्त्व भक्ति हैइसीलिए यह साहित्य अपने पूर्ववर्ती साहित्य से सब प्रकार से भिन्न है।"

भक्ति परंपरा की प्रमुख धाराएँ या मार्ग :- 

भक्ति परंपरा को मुख्य रूप से दो धाराओं में बांटा गया है:

1.      निर्गुण भक्ति धारा:

    इस धारा के कवि निराकारअजन्मा और सर्वव्यापी ईश्वर में विश्वास करते थे।

  इन्होंने ईश्वर को किसी विशेष रूप या अवतार में नहीं देखा।

 इसकी दो शाखाएँ हैं:

  ज्ञानाश्रयी शाखा (संत काव्य): कबीररैदासनानक। नानक जी सिख धर्म का संस्थापन किया और उन्होंने ईश्वर में विश्वास और भाईचारे का संदेश दिया|

 प्रेमाश्रयी शाखा (सूफी काव्य): मलिक मुहम्मद जायसीकुतुबन। 

2.      सगुण भक्ति धारा:

   इस धारा के कवि ईश्वर के साकार रूप और अवतारवाद में विश्वास करते थे।

  इन्होंने राम और कृष्ण को ईश्वर के रूप में स्वीकार कर उनकी लीलाओं का गुणगान किया।

  इसकी दो शाखाएँ हैं:

रामभक्ति शाखा: तुलसीदासनाभादास।

कृष्णभक्ति शाखा: सूरदासमीराबाईरसखान। 

कवि

धारा

प्रमुख रचनाएँ

कबीरदास

निर्गुण (ज्ञानाश्रयी)

बीजक(साखीसबदरमैनी)

मलिक मुहम्मद जायसी

निर्गुण (प्रेमाश्रयी)

पद्मावतअखरावट

तुलसीदास

सगुण (रामभक्ति)

रामचरितमानसविनयपत्रिकाकवितावली

सूरदास

सगुण (कृष्णभक्ति)

सूरसागरसूरसारावली

मीराबाई

सगुण (कृष्णभक्ति)

मीराबाई की पदावली

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भक्ति परंपरा में गुरु महिमा

                    मध्ययुगीन कालखंड में भक्ति परंपरा उद्भव हुआ| यह भक्ति परंपरा दो रुपों में चली - 1) निर्गुण भक्ति धारा और 2) सगुण भक्ति धारा | निर्गुण भक्ति धारा में ज्ञान और प्रेम को भक्ति मार्ग के रूप में अपनाया हैसगुण भक्ति धारा में राम और कृष्ण की भक्ति का महत्व विशद किया हैभक्ति परंपरा का यह युग कर्मकांडआडंबर और जटिलताओं का रहा हैंअत: इस युग में भक्ति का मार्ग नयी प्रकाश की किरण लेकर आया हैजो किरण महिलों से लेकर झोपडियों तक और राजपथ से जनपथ तक पहुंचाने का काम तत्कालीन अंत कवियों ने किया हैं|  अर्थात तत्कालीन समाज में रूढी परंपरा अंधश्रद्धाजातीय संघर्ष आदि को समाप्त करने के लिए तत्कालीन भक्त कवियों ने भक्ति को अपना साधन बनाया हैपरंतु भक्ति एक ऐसा अध्यात्मिक मार्ग है जिसके लिए उचित साधना की आवश्यकता होती हैअत: सभी भक्त कवियों इस साधना की प्राप्ति की लिए गुरु की महिमा का महत्व विशद किया हैभक्ति परंपरा में गुरु को एक साधारण व्यक्ति नहींबल्कि एक दैवीय शक्ति के रूप में देखा जाता है। गुरु का मार्गदर्शनज्ञान और कृपा ही शिष्य को मोक्ष और ईश्वर की प्राप्ति की ओर ले जा सकती है। यही कारण है कि भारतीय संस्कृति और भक्ति मार्ग में गुरु का स्थान सर्वोपरि है।जिसका परिचय यहां प्रस्तुत है|  

1)    गुरु को ईश्वर से भी बढ़कर स्थान:-                 

              निर्गुण संत कवियों में भक्ति परंपरा में गुरु की महिमा अत्यंत महत्वपूर्ण है। गुरु को ईश्वर से भी बढ़कर माना गया है क्योंकि वह ईश्वर तक पहुँचने का मार्ग दिखाते हैं। जैसे कबीर कहते है -

गुरु गोविंद दोऊ खड़ेकाके लागूं पांय। 

बलिहारी गुरु आपनेगोविंद दियो बताय।। 

अर्थात गुरु और गोविंद आपके सामने खडे है तो सबसे पहले गुरु को नमन करेंगे कारण गुरु के कारण ही गोविंद तक पहुंचने मार्ग मिला हैइस तरह गुरु को गोविंद से बढकर माना है

गुरु ही  ब्रह्म गुरु ही  ईश्वर मानते हुये दादू दयाल लिखते है 

गुरु गोविंद तो एक हैदुजा यहु आकार 

आपा मेट जोवत मरैं तो पावै करतार 

दादू अल्लह नाम कादोनों पथ से न्यारा 

रहिता गुण आकार का सो गुरु हमारा 

2 ) ईश्वर तक पहुँचने का मार्ग: 

        गुरु को भक्ति मार्ग का प्रवेश द्वार माना जाता है। वह ईश्वर तक पहुँचने के लिए सही साधनामंत्र और आध्यात्मिक अभ्यास सिखाते हैं।अत: गुरु ईश्वर तक पहुंच ने का मार्ग होते हैजैसे जायसी लिखते है - तन चितउरमन राजा कीन्हा । हिय सिंघलबुधि पदमिनि चीन्हा ॥

गुरू सुआ जेइ पंथ देखावा ।

 बिनु गुरु जगत को निरगुन पावा ?

3) भक्तिमार्ग पर आध्यात्मिक मार्गदर्शक  :-

        भक्ति परंपरा मेंगुरु केवल एक शिक्षक नहींबल्कि आध्यात्मिक मार्गदर्शक होते हैं। वह शिष्यों को अज्ञान के अंधकार से निकालकर ज्ञान के प्रकाश की ओर ले जाते हैं। गुरु के बिना भक्ति मार्ग पर चलना असंभव माना जाता है।

    तुलसीदास: गोस्वामी तुलसीदास ने भी रामचरितमानस में गुरु की महिमा का वर्णन किया है:

      बंदउँ गुरु पद पदुम परागा। 

सुरुचि सुबास सरस अनुरागा।।  

 इसका अर्थ है कि मैं गुरु के चरण कमलों की धूल की वंदना करता हूँजो सुरुचिपूर्णसुगंधित और प्रेम से परिपूर्ण है

सूरदास: सूरदास ने भी अपने पदों में गुरु के महत्व को दर्शाया हैजहाँ गुरु के बिना कृष्ण भक्ति की राह को कठिन बताया गया है। 

4) अज्ञान का नाशक : 

        गुरु शिष्य के भीतर के अज्ञानअहंकार और भ्रम को दूर करते हैं। वे आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान करते हैंजिससे शिष्य को अपनी वास्तविक पहचान और ईश्वर के साथ अपने संबंध का बोध होता है। अत:  भक्ति परंपरा में गुरु की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका अज्ञानता के अंधकार को दूर करना है| संस्कृत शब्द गुरु स्वयं इस अर्थ को स्पष्ट करता है 'गु' का अर्थ है अंधकार और 'रु' का अर्थ है उसे दूर करनेवाला| इस प्रकार गुरु वह दिव्या प्रकाश है जो शिष्य के मन से भ्रम, संशय, मोह-माया और संसारिक आसक्तियों के अंधकार को मिटाकर ज्ञान के प्रकाश की ओर ले जाता है|   

5) सांसारिक बंधनों से मुक्ति देनेवाले गुरु : 

    गुरु की कृपा से शिष्य सांसारिक मोह-माया और दुखों से मुक्त हो पाता है। गुरु का मार्गदर्शन उसे जीवन के उतार-चढ़ाव में स्थिर रहने में मदद करता है। जैसे गुरु नानक कहते है -

"गुरु परसादि परमारथ पाईऐ।

गुर बिनु को न उरे पंथ॥"

अर्थात गुरु की कृपा से आत्मज्ञान होता है और उसके बैगेर कोई भी मार्ग दिखाई नहीं देता है|

6) गुरु को सहज शून्यवत् हो :-

       “गुरु सहज शून्यवत् हो ” इसका  तात्पर्य यह है कि गुरु की अवस्था निरपेक्षनिर्विकल्प और अहंकारशून्य है।वे किसी व्यक्तिगत इच्छा, वासना या द्वेष से बंधे नहीं, बल्कि जैसे शून्य (आकाश) सबको धारण करता है पर स्वयं निर्लिप्त रहता है, वैसे ही गुरु सबके लिए करुणा का स्रोत हैं, पर भीतर से पूर्ण रूप से मुक्त रहते हैं। इन भक्तों ने प्राय: शून्य के साथ गुरु की तुलना की है|इस जीवन के सहज विकास के लिये शून्य आकाश की भान्ति मुक्त अवकाश अपेक्षित है|गुरु भी ठीक ऐसा ही  होना चाहिये इसीसे रज्जब गुरु के अंग के बारे में कहते है- संत गुरु शून्य समान है

यह एक वैज्ञानिक तथ्य है कि चराचर सृष्टि के विकास के लिये शून्य आवश्यक है। साधारण से लेकर बड़े से बडे अकुर का स्वाभाविक विकास तभी हो सकता है जब उस के ऊपर मुक्त आकाश हो। ऊपर यदि शून्य आकाश न होकर किसी चीज से ढक दिया जाय तो कोई भी पौदा बढ़ नहीं सकता। इसी प्रकार गुरु अपने व्यक्तित्व से शिष्य को प्रभावित करना चाहे तब तो वह दब ही मरेगा आगे उस का विकास क्या होगा ? इसी से गुरु को सहज शून्यवत् होना चाहिये । संतो तों की बानियो में 'सहजऔर 'सुन्नशब्द बारंबार आते हैं|

7) पूर्ण समर्पण (शरणगति) और अटूट विश्वास:-

भक्ति परंपरा में शिष्य और गुरु का संबंध पूर्ण समर्पण (शरणगति) और अटूट विश्वास (श्रद्धा) पर आधारित होता है. शिष्य को अपने गुरु के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित होना चाहिए, उनकी आज्ञाओं का बिना किसी तर्क या संदेह के पालन करना चाहिए. गुरु के वचन को अंतिम सत्य और उनके निर्णय को सर्वोत्तम माना जाता है. यह समर्पण अहंकार का त्याग करने और गुरु के ज्ञान को पूर्ण रूप से ग्रहण करने के लिए आवश्यक है. भक्ति में गुरु की महिमा इतनी प्रबल है कि शिष्य को यह विश्वास दिलाया जाता है कि गुरु ही उसका उद्धार करेंगे, और यह विश्वास ही उसे सभी चिंताओं से मुक्त करता है.

8) मार्गदर्शन, संरक्षण और भावनात्मक संबल:-

गुरु केवल आध्यात्मिक पथप्रदर्शक ही नहीं होते, बल्कि वे शिष्य के जीवन के हर पहलू में उसका मार्गदर्शन करते हैं और उसे संरक्षण प्रदान करते हैं. वे एक पिता, माता और मित्र के समान होते हैं, जो शिष्य को सांसारिक कठिनाइयों और आध्यात्मिक मार्ग की बाधाओं से बचाते हैं. गुरु की उपस्थिति शिष्य को भावनात्मक सुरक्षा और मानसिक शांति प्रदान करती है. वे शिष्य को उसके दुखों में सांत्वना देते हैं और उसे सही निर्णय लेने में मदद करते हैं. यह संबंध प्रेम, करुणा और वात्सल्य पर आधारित होता है, जहाँ गुरु अपने शिष्य को अपनी संतान के समान मानते हैं और उसके कल्याण के लिए हर संभव प्रयास करते हैं.

9)  नस्ल, जाति और लिंग से परे सार्वभौमिक पहुँच:-

भक्ति आंदोलन की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह थी कि इसने जाति, वर्ण, लिंग और सामाजिक स्थिति के आधार पर होने वाले भेदभावों को चुनौती दी| गुरु महिमा की अवधारणा में भी यह सार्वभौमिकता परिलक्षित होती है| सच्चे गुरु ने बिना किसी भेदभाव के किसी भी पृष्ठभूमि से आने वाले शिष्य को स्वीकार किया| उदाहरण के लिए, संत रविदास (जो एक चर्मकार थे) ने मीराबाई जैसी उच्च कुल की राजकुमारी को भी शिष्य के रूप में स्वीकार किया, जो दर्शाता है कि गुरु का महत्व उनकी आध्यात्मिक योग्यता में निहित है, न कि उनके सांसारिक पद में| यह गुरु-शिष्य परंपरा को समावेशी और लोकतांत्रिक बनाता है|

10) निरंतर प्रेरणा और आध्यात्मिक विकास का स्रोत:-

गुरु का प्रभाव शिष्य के जीवनकाल तक सीमित नहीं रहता, बल्कि उनकी शिक्षाएँ और प्रेरणाएँ पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ती रहती हैं| गुरु अपने शिष्यों के माध्यम से अपनी परंपरा, दर्शन और आध्यात्मिक ज्ञान को फैलाते हैं, जिससे भक्ति मार्ग निरंतर समृद्ध होता रहता है| गुरु एक जीवित प्रेरणा होते हैं जो शिष्य को लगातार आध्यात्मिक विकास और आत्म-सुधार के लिए प्रेरित करते हैं|

संक्षेप में भक्ति परंपरा में गुरु महिमा एक बहुआयामी अवधारणा है जो गुरु को अज्ञान के नाशक, ईश्वर के प्रत्यक्ष स्वरूप, मोक्ष के दाता, आध्यात्मिक ज्ञान के स्रोत और निस्वार्थ प्रेम तथा करुणा के अवतार के रूप में प्रस्तुत करती है. गुरु के बिना भक्ति मार्ग पर चलना असंभव माना जाता है, और उनके प्रति और सेवा ही भक्त को परम सत्य और आनंद की ओर ले जाती है.

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2.1. संत साहित्य में गुरु महिमा

मध्ययुगीन भक्ति परंपरा में संत साहित्य एक महत्वपूर्ण देन है| ‘संत’ शब्द की व्युत्पत्ति 'सत्से मानी जाती हैजो अस्तित्व बोधक होने के साथ सत्य का भी अर्थ द्योतन करता हैइससे यह निष्कर्ष निकला जा सकता है कि संत लोग  सत्य के प्रति पूरी आस्था रखते हैउनका जीवन सत्य के अनुरूप ही ढलता थासत्य की अनुभूति ही उनकी वाणी का साध्य थानिर्गुण संत सत्य के उपासक थे और सत्य में पूरी आस्था रखते हुए इसी अनुसंधान मेंअपने जीवन को लीन कर चुके थे। अत: संत शब्द अपने मूल अर्थ में सत्य को ही द्योतीत करता हैजिसके अंतर्गत सगुण-निर्गुण सभी प्रकार के भक्त- कवि सम्मिलित होते  हैआज भी सामन्य रूप में यह शब्द उसी अर्थ को व्यक्त करता हैकिंतु आचर्य रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी साहित्य के इतिहास -लेखकों को अर्थ की एक नई दिशा में प्रेरित किया है और यह शब्द इतिहास में निर्गुणोपासक भक्तों के लिए ही रूढ हो गया जिसमें कबीरकबीररैदाससेनपीपाधन्ना आदि भक्त कवि आते हैइनके साहित्य पर आधारित गुरु महिमा को निम्न रूप में स्पष्ट कर सकते है|  

  सारा भक्ति काव्य एक स्वर से गुरु की वंदना करता हैनाथ पंथ  का गुरु साधारण मानव नहीं है वह साधनात्मक विकास करता ईश्वरत्व की मंजिल पर पहुंच गया हैसंतों ने तो उसकी मर्यादा और आगे बढ़ा दी और इसे ईश्वर से भी ऊंचा पद दिया|  उनका कहना है कि यदि गुरु नहीं रहता तो मोक्ष का मार्ग बताता कौनपरम पद से मिलता कौन?  दादू दयाल का कहना है कि यदि भगवान रूठ गया तो कोई चिंता की बात नहीं है क्योंकि गुरु की कृपा से उसे सहज ही अनुकूल बनाया जा सकता है लेकिन यदि गुरु रूठ गया तब तो कहीं प्राण नहींसंतों ने गुरु को जितना महत्व दिया है और जितनी व्यापकता दी उतनी किसी ने नहीं दीअत: संत साहित्य में प्रस्तुत गुरु महिमा को निम्न रूप में देख सकते है

1) गुरु ईश्वर से बढकर तथा वहां तक पहुंचने का रास्ता:- 

संत कवियों ने गुरु को ईश्वर से भी श्रेष्ठ बताया हैक्योंकि गुरु ही शिष्य को ईश्वर तक पहुँचने का मार्ग बताता है। संत शिरोमणी कबीर ने गुरु को गोविंद से बढकर माना है | उनकी उस उक्ति को कभी भूल नही सकते  जहां उन्होंने गोविंदा के साथ खड़े हुए गुरु में से गुरु को ही चुना है|गुरु को ईश्वर से भी ऊँचा स्थान कबीर कहते हैं कि यदि एक ओर गुरु खड़े हों और दूसरी ओर भगवानतो पहले गुरु को प्रणाम करना चाहिए क्योंकि गुरु ही ईश्वर तक पहुँचने का मार्ग बताते हैं। जैसे -

"गुरु गोविन्द दोऊ खड़ेकाके लागूं पाय।

बलिहारी गुरु आपनोगोविन्द दियो बताय॥

2) ज्ञान का प्रकाशक:-

 कबीररैदासदादूमलूकदास आदि संतों ने गुरु की तुलना सूर्य से की है—जैसे सूर्य प्रकाश देकर अंधकार मिटाता हैवैसे ही गुरु अज्ञान नष्ट करता है।कबीर के अनुसार गुरु ही ज्ञान का प्रकाशक अर्थात अज्ञान रूपी अंधकार को केवल गुरु ही मिटा सकते हैं। गुरु दीपक की तरह शिष्य के जीवन में प्रकाश भरते हैं।                                                         

गुरु बिन लखै न सत्य कोगुरु बिन मिटै न दोष॥"

3) गुरु: आत्मज्ञान का दाता तथा मोक्ष का साधक:- 

        संत  कवियों  ने "गुरु" को आत्मज्ञान और सत्य की ज्योति प्रदान करने वाला कहा। बिना गुरु के आत्मज्ञान संभव नहीं।गुरु ही शिष्य को मायामोह और अंधविश्वास से मुक्त करता है।कबीरदास जी के काव्य में गुरु  की महिमा का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। उनके लिए आत्मज्ञान और ईश्वर की प्राप्ति का एकमात्र साधन सतगुरु  है। कबीर का विश्वास था कि गुरु के बिना न तो सच्चे ज्ञान की प्राप्ति सम्भव है और न ही मोक्ष की। कबीर ने कहा है कि गुरु शिष्य को बाहरी आडंबरों से हटाकर आत्मा के भीतर झाँकने की शिक्षा देते हैं। अर्थात   गुरु से आत्मबोध होता है|

                                     "गुरु बिन ज्ञान न उपजेगुरु बिन मिले न मोक्ष।" 

 4) गुरु ही साधना का मूल:- 

           भगवान की भक्ति एक साधना हैब्रह्म इस घट में ही है यह आत्मज्ञान और मोक्ष का मार्ग स्वयं ढूँढना कठिन है। अज्ञान के अंधकार को हटाने वाला केवल गुरु है।   इसके लिए सच्चे गुरु की आवश्यकता है |  इसीलिये कबीर झूठे गुरुओं और पाखंडी साधुओं की आलोचना करते हैं। वे कहते हैं कि केवल सच्चे गुरु से ही ज्ञान और मुक्ति की प्राप्ति हो सकती है।                                                                           

“सतगुरु मिलै तो सब मिलैन मिलै तो कछु नाहिं।

सहजे ही सब पाइएजो गुरु दीन्हा राहिं॥"

कबीर के अनुसार गुरु और शिष्य का सम्बन्ध केवल शिक्षा तक सीमित नहीं हैबल्कि यह आत्मा और परमात्मा के मिलन का सेतु है।  अत: गुरु ही साधना के मूल है-                                                       

गुरु की करनी गुरु भरेशिष्य भरे जो आप।

कहै कबीर गुरु छोड़ि केलागे रहै संताप॥"

गुरु नानक ने कहा कि सच्चा गुरु शिष्य को नाम की शक्ति देता हैअहंकार दूर करता है और सत्य-प्रेम का मार्ग दिखाता है। गुरु के बिना भक्तिसाधना और मोक्ष सब अधूरे हैं।अत: गुरु की कृपा से ही जीव संसार-सागर से पार हो सकता है। गुरु की कृपा ही जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति का द्वार खोलती है।

5) गुरु ही जीवन-नाविक

संतों  ने गुरु को सतगुरु नाविक कहा है। जैसे नाविक नदी पार कराता हैवैसे ही गुरु शिष्य को भवसागर से पार कराता है। कबीर साहेब ने गुरु को भवसागर-पार कराने वाला नाविक बताया है -

"गुरु बिन भव न तरै न कोई।
जो बिरला गुरु सेवै सोई॥"

इस प्रकार संत काव्य में गुरु को ज्ञानमुक्ति और ईश्वर-प्राप्ति का मूल आधार माना गया है। कबीर की वाणी में गुरु की महिमा का अद्वितीय और गहन चित्रण मिलता है।

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2.2. सूफी साहित्य में गुरु महिमा

        सूफीमत में गुरु की बड़ी महिमा हैलगभग सभी सूफी संतों गुरु के महत्व को स्पष्ट किया है वह इस प्रकार -

1) अंधकाररुपी संसार से बाहर निकलनेवाले तथा सच्चा  पथ प्रदर्शक -

सूफियों के दृष्टि से संसार एक अंधकारपूर्ण भूल भूलैया हैजहां सही रास्ता पाना बडा कठीन है|तब  पथ-प्रदर्शक की परम आवश्यकता होती है  है। गुरु अपने ज्ञान-दीपक से साधक का हाथ पकड़कर उसे सही मार्ग दिखाते हैंयदि गुरु हाथ पकड ले तो वह लक्ष्य पर पहुँच जाता है अन्यथा प्रपंच रूपी गहनता की भूल-भुलैयाँ में ही चक्कर काटता रहता है और कभी भी गन्तव्य स्थान पर नहीं पहुंचता अर्थात  यदि गुरु न मिले तो इंसान अज्ञान और प्रपंच के चक्कर में भटकता ही रह जाता है।उसे सही मार्ग नहीं मिल पाताअत: अंधकाररुपी संसार से बाहर निकलने के लिए गुरु सच्चे पथ प्रदर्शक का काम करता हैजैसे जायसी कहते है -

                         बिनु गुरु पंथ  न पाइयभूलै  सो जो मेट ।

अर्थात गुरु के बिना सही मार्ग (साधना या मोक्ष का रास्ता) नहीं मिल सकता। सिर्फ गुरु ही भटकाव (भ्रम/अज्ञान) को मिटा सकते हैं।)(जायसी ग्रन्थावली पदमावत१० १२।)

2) सुख की अनुभूति देनेवाले गुरु:-

सूफियों का मानना है कि सद्‌गुरु का मिलना बड़ा कठिन है परन्तु जिसे वह मिल जाता है वह सुखकर मार्ग पर ही चलता है। कारण यह है कि वह फिर पथभ्रष्ट नहीं होता। उसे दीपक मिल जाता है और वह उसके प्रकाश में सीधा ही चला जाता है। उसे विषमताएँ भी स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है अतः वह उन पर विजय पाता हुआ बढ़ता है और अपने दृढ़ नेता के नेतृत्व में सभी कठिनाइयों को पार करता हुआ परमानन्द का अनुभव करता है|जैसे जायसी कहते है-

"जेइ पावा गुरु मीठ सो सुख मारग महें चलै  ।

सुख अनंद भा दीठमहमद साथी  पोढ  जेहि ॥"(वहीअखरावटपृ० ३२२ ।)

अर्थात जिसे मधुर (सच्चा) गुरु मिल जाता हैवह सुखमय मार्ग पर चलता है। ऐसा साधक सच्चा सुख और आनंद पाता है। महमद (पैग़म्बर/सत्य के साथी) उसी के साथ होते हैंजो इस मार्ग पर दृढ़ता से चलता है।

3)  आत्मिक ज्ञान देनेवाले गुरु :-

 गुरु के बिना जीवन एक अंधेरी रात जैसा है। अकेले मार्ग पर चलना भयावह है और अज्ञान का अंधकार हर ओर फैला रहता है। पर जैसे ही सद्गुरु मिलते हैंअज्ञान मिट जाता है और साधक को सच्चा ज्ञान प्राप्त होता है। गुरु की महिमा अनंत हैक्योंकि वही साधक की भीतरी आंखें खोलते हैं।जैसे पद्मावत में लिखते है - 

"रैनि अँधेरी अगम अतिअगुवा नाहीं संग ।

पंथ अकेला बापुरा किमि कर पार्व भंग ॥"

अर्थात यह संसार अंधेरी रात जैसा कठिन और अगम्य है। यदि साथ में मार्गदर्शक (गुरु) न हो तो अकेला पथिक बेचारा इस अंधकारमय मार्ग को पार कैसे कर पाएगा?

4) चतुर्दिक मार्ग का ज्ञान देनेवाले गुरु तथा बिन गुरु साधक अंधे के समान :   

जीवन जीते वक्त मनुष्य के सामने अनेक मार्ग खुले होते हैपर उसमें में सही मार्ग कौनसा है इसका कभी उसने अनुभव लिया ही नहीं या कौने मार्ग सही है इसके मार्गदर्शन भी नहीं लिया तो इस मार्ग पर साधक भटकता रहता है | अत: ऐसे चतुर्दिक मार्ग का ज्ञान देनेवाले गुरु ही होते है कारण गुरु ही निश्वार्थ भाव से सही मार्ग दिखा सकते है | इसके लिए गुरु की आवश्यकता होती ही है | जैसे जायसी कहते है - 

जा कहें गुरु न पंथ दिखावासो अंधा चारिहुँ दिसि धावा ॥चित्रावलीपृ० ६५ ।

अर्थात जिस व्यक्ति को गुरु ने मार्ग (सच्चा रास्ता) नहीं दिखायावह अंधे के समान है और चारों दिशाओं में अंधाधुंध भटकता रहता है।

5)अनंत उपकारी गुरु:-   

सूफी संतों के विचार है कि  जब सद्गुरु मिल जाता है तो उसकी सहायता से साधक का अज्ञान दूर हो जाता है और ज्ञान प्राप्त होता है। कारण गुरु की महिमा अपार है। उसके विचार होते है कि वह स्वयं मार्ग पा चुका है अतः उसका जीवन परमार्थ के लिए ही होता है। जो सद्भाव से उसकी शरण में आता हैउसे वह ज्ञान-दीपक दिखा देता है। गुरु के उपकारों की कोई सीमा नहीं क्योंकि वह अन्तदृष्टि को खोलने वाला हैजिस के खुलते हो मनुष्य विवेक से परिपूर्ण हो जाता है। उसे गुप्त रहस्य हस्तामलकवत् हो जाते है और अलक्ष्य का साक्षात्कार हो जाता हैजैसे दादू द्याल कहते है

सतगुरु को महिमा अनंतअनंत किया उपकार ।

लोचक अनंत उघारियाअनंत दिखावन हार ॥सन्तवानी संग्रह (पहला भाग१०१ ।

अर्थात सतगुरु की महिमा अनंत है और उन्होंने अनगिनत उपकार किए हैं। वे अनगिनत नेत्र (अंतर्दृष्टि) खोलने वाले हैं और अनगिनतों को सत्य का दर्शन कराने वाले हैं।

6) सन्मार्ग पर ले जानेवाले -

    सूफियों की दृष्टि से गुरु सन्मार्ग पर ले जानेवाले होते है इसके लिए आवश्यक है गुरु की प्राप्ति होने पर शिष्य तनिक भी भेद भाव ने रखेयदि  गुरु की प्राप्ति पर भी शिष्य तनिक भी भेद-भाव रखता है तो उसे सिद्धि प्राप्त नहीं हो सकती। उसे निश्छल और निःस्वार्थ होकर गुरु के चरणों में अपने को अर्पित कर देना ही होगा तभी वह लक्ष्य को पा सकता हैक्योंकि इस से वह गुरु की कृपा का पात्र हो जाता है। गुरु की कृपा ही रहस्यों का उद्घाटन कराती है और तब शिष्य सन्मार्ग का अनुगामी हो जाता है-

चेला सिद्धि सो पार्वगुरु सौं करे अछेद ।

गरु करै जो किरिपापार्व चेला भेद ॥3जायसी ग्रन्थावली पदमावत १० १०६।

दादू दयाल ने भी कहा है कि सद्गुरु मिल जाने पर भक्ति और मुक्ति का भण्डार मिल जाता है। गुरु के बिना भक्ति की धारा लक्ष्य की ओर प्रवाहित नहीं होतीइसलिए परमात्मा का दर्शन नहीं हो पाता।

सद्गुरु मिले तो पाइए,भक्ति मुक्ति भण्डार प्राप्त|

दादू  सहज देखियेसाहिबा  का दीदार||4सन्तवानी संग्रह (पहला भाग)पृ० ७७

गुरु ही इस विषय में समर्थ होता है। यारी का कथन है कि गुरु के चरणों की धूल उस अंजन का कार्य करती है जो आंखों में लगाने पर अज्ञानांधकार को मिटा देता है। इस से प्रकाश  हो जाता है और निराकार परमात्मा प्रकाश रूप में दृष्टिगोचर होता है-

गुरु के चरनों की रज लेके , दोउ नैंन  के (वचन  अंजन दिया ।

तिमिर मेटि उंजियार हुआनिरंकार पिया को देखि लिया ॥"5 वही (दूसरा भाग)५० १४५ ।

7) मन का शुद्धिकरण करनेवाले - 

मनुष्य गुरु के बिना साधना-मार्ग में निपट असमर्थ है। शरीर की बाह्य शुद्धि से कोई लाभ नहीं। ईश्वर का साक्षात्कार करने के लिए हृदय की निर्मलता आवश्यक है और वह काम-क्रोधादि अन्तमेल की शुद्धि के बिना असम्भव है। पंजाबी के सूफी संत बुल्लेशाह के कथनानुसार बिना सद्गुरु के इस अन्तर्मल का प्रक्षालन केवल पूजा-पाठ आदि से नहीं हो सकता अतः वह निष्फल ही है-

बाहरां पाक कीते की होंदाजो अंदरों न गई पतीती|

बिन मुर्शिद कामिल बुस्ला तेरीऐवें गई इवादत बोली॥1सन्तवानी संग्रह (पहला भाग)पृ० १५३।

यानी बुल्ले शाह का जोर अंतर की शुद्धि और गुरु की आवश्यकता पर हैन कि केवल बाहरी आडंबर या रीति-रिवाजों पर।

8) सत्य का अनुभव करनेवाला  ज्ञानी गुरु हो अज्ञानी न हो - 

 गुरु का इतना माहात्म्य होने के कारण शिष्य को सद्गुरु की खोज करनी पड़ती हैपर गुरु सत्य का अनुभव करनेवाला ज्ञानी हो अज्ञानी न  हो|  क्योंकि यदि गुरु स्वयं अन्धा है और उसे अज्ञानवश कुछ सूझ नहीं पड़ता तो शिष्य को भला क्या मार्ग दिलायेगा क्योंकि शिष्य भी तो अन्धा ही है। यह विचार कबीर के विचारों से प्रेरित हैजैसे  कबीर का कहना है कि इस प्रकार अज्ञानी गुरु अबोध शिष्य को अन्धा अन्धे की भाँति अंधाधुंध ठेलता हुआ प्रपंच के अन्ध-कूप में जा गिरता है-

जाका गुरु है आंधराचेला निपट निरंध ।

अंधे अंधा ठेलियादोऊ कूप परंत ॥२सन्तवानी संग्रह (भाग पहला)पृ०४।

9) योग और सिद्धि की प्राप्ति करनेवाला गुरु:- 

    संसार में केवल सिर मुंडाने और इधर-उधर फिरने से कोई योगी या सिद्ध नहीं हो जाता। योग और सिद्धि की प्राप्ति गुरु की कृपा में ही निहित हैसूफी संत उसमान कहते है 

मूंड मुंड़ाये जग फिरेजोगी होइ न सिद्ध

जा कहं  गुरु किरपा करहि  सो पावै नौ  निद्ध ॥-- उसमानचित्रावली१० ८६।

अर्थात दुनिया में बहुत लोग सिर मुंडाकर घूमते हैंलेकिन केवल सिर मुंडाने से कोई योगी या सिद्ध नहीं हो जाता। वास्तव में वही साधक नौ प्रकार की सिद्धियाँ पाता हैजिस पर गुरु कृपा कर देते हैं।

10) धर्म के नाम पर डरानेवला गुरु न हो:-

सूफियों के अनुसार गुरु मुल्ला या काजी नहीं हो सकता जो नमाज पढ़ाते हैमंत्र दीक्षा देते हैं तथा सदा शरअ (इस्लाम के विधान) का डर दिखाते हैं। बुल्लेशाह का कहना है कि भला हमारे प्रेम को इस शरअ से क्या-

मुल्ला काजी नमाज पढ़ावनहुकम सदा दा भय सिखलावन ।

साढ़े इसक नूं  को सरा दे नाल ॥"4सन्तवानी संबह (दूसरा भाग)पृ० १६०।

अर्थात मुल्ला और क़ाज़ी केवल नमाज़ पढ़ाते हैं और लोगों को सदा नियम-कानूनों और डर (शरीअत के भय) में बाँधते हैं।

लेकिन हमारे प्रेम (ईश्वर से सच्चे इश्क़) का इन बाहरी नियमों और डर से कोई संबंध नहीं है।  

11) सत्मार्गी हो तथा बाह्य आचारों से प्रेरित न होनेवाला गुरु  :-   

          वह गुरु पंडित होना चाहिए। पंडित से अभिप्राय है जो ज्ञानी है और जिस ने तत्त्व को जान लिया है। वह कभी सत्य के विरुद्ध बात नहीं कहता और सदा पथ-भ्रष्ट को सन्मार्ग पर लाने का प्रयत्न करता रहता है- 

पंडित केरी  जीभ मूख सूधीपंडित बात न कहै  विरुधी

पंडित सुमति देई पथ लावा। जो कुपंथि तेहि  पंडित न भावा|

अर्थात असली ज्ञानी की वाणी शुद्धमीठी और स्पष्ट होती है।वह असत्य या विरोधी बातें नहीं करता।वह सही बुद्धि देकर साधक को सच्चे मार्ग पर लगाता है।जो लोग गलत राह पर होते हैंसच्चे पंडित को वे अच्छे नहीं लगतेक्योंकि वह उन्हें सुधारना चाहता है।

नूरमुहम्मद ने अनुराग बाँसुरी में सनेह गुरु के मुख से कहलवाया है कि केवल दाढ़ी रखानेमाला फेरने या किसी भेष के धारण करने से तपी या वैरागी नहीं होता। उसका योग तो तभी पूरा होता है जब मन की माला जपता है और ध्यान में ही स्मरण करता है-

है वैराग पंथ अनि गाढ़ी। चलि न सकै  जिन्ह के मुख दाढ़ी ॥

तपी न होहि भेस के किहें। रंग दुकूल माला के लिहें ।।

मन के मालें सुमिरै नेही लोग। ध्यान औ सुमिरन सोंपूरन जोग ॥

अर्थात सच्चा वैराग्य और साधना का मार्ग अत्यंत कठिन है।केवल बाहर की दाढ़ी या वेश बदल लेने से कोई साधक नहीं बनता।कपड़े बदलने या विशेष भेस धारण करने से तपस्या नहीं होती।रंगीन कपड़े या हाथ की माला केवल दिखावा हैं।लोग बाहरी माला फेरते हैंपर मन की माला (भीतर का स्मरण) नहीं फेरते|सच्चा योग केवल ध्यान और सच्चे सुमिरन से ही पूर्ण होता है।

जब केवल बाह्य आचारों से तपी और वैरागी नहीं हो सकता तब वह सद्गुरु के उत्तम पद को कैसे पा सकता है ? कबीर ने तो बाह्य वेष की बड़ी निन्दा की है। उनकी दृष्टि में गुरु और गोविन्द (ईश्वर) में कोई अन्तर नहीं है। 'गुरु गोविन्द तो एक है इस वाक्य से उन्होंने इस बात को स्पष्ट कर दिया है। जायसी ने भी, 'आपुहि गुरु आपु भा चेला" कहकर इसकी पुष्टि की है। वे एक पग आगे और बढ़ गये हैं। उन्होंने सच्छिष्यसद्गुरु और ईश्वर में कोई भेद नहीं माना है। यद्यपि यह वावय अद्वैत की दृष्टि से है तथापि इससे गुरु का माहात्म्य तो व्यंजित है ही। रत्नसेन के मुख से पद्मावती को गुरु कहलाकर भी यही बात ध्वनित की गई है-

सो पदमावति गुरु हों चेला। जोग तंत जेहि कारन खेला ॥"6  पदमावतपृष्ठ १०५ ।

उसमान ने भी ईश्वर को ही पथ-प्रदर्शक कहा है-

पावै  खोज तुम्हार सोजेहि देखावहुं  पंथ ।7चित्रावलीपृ  48.

ऐसे सद्‌गुरु का आश्रय तो साधक के लिए परम आवश्यक है। इस संसार-सागर में सद्गुरु ही हमारा कर्णधार है। यदि हमें इस साधना-पथ पर यात्रा करनी है तो उसके ज्ञान-प्रकाश से ही मार्ग के अन्धकार को हटाना पड़ेगा और तभी हम पार हो सकेंगे-

सुकृत पिरेमहि हितु करहुसत बोहित पटवार।

खेवट  सतगुरु ज्ञान हैउतरि जाव भौ  पार।।2 दरिया-सन्तवानी संग्रह (पहला भाग)पृष्ठ १२१।

12) ईश्वर तक पहुँचने का मार्ग तथा भक्ति मार्ग का प्रवेश द्वार : -

गुरु को भक्ति मार्ग का प्रवेश द्वार माना जाता है। वह ईश्वर तक पहुँचने के लिए सही साधनामंत्र और आध्यात्मिक अभ्यास सिखाते हैं।अत: गुरु ईश्वर तक पहुंच ने का मार्ग होते हैजैसे जायसी लिखते है – 

तन चितउरमन राजा कीन्हा । हिय सिंघलबुधि पदमिनि चीन्हा ॥

गुरू सुआ जेइ पंथ देखावा । बिनु गुरु जगत को निरगुन पावा ?

इस प्रकार सूफियों में गुरु को बड़ा उच्च स्थान दिया गया है। भूले को मार्ग पर लाने वालारहस्यों का उद्घाटन करने वाला तथा ईश्वर से मिलाने वाला गुरु ही है। अतः गुरु ईश्वर से कम नहीं। कबीर ने एक स्थान पर गुरु को ईश्वर से भी बढ़कर कहा हैक्योंकि गुरु ईश्वर का बोध कराने वाला है-

गुरु गोविंद  दोऊ खड़ेकाके लागू पाँय ।

बलिहारी गुरु आपनेजिन गोविद दियो बताय ॥1सन्तबानी संग्रह (पहला भाग)पृष्ठ २।

यह पहले कहा जा चुका है कि सूफी का चरम लक्ष्य तत्त्व का साक्षात्कार करना है। यह साक्षात्कार ही सूफी के लिए मुख्य प्रमाण है। गुरु अथवा ग्रन्थ ये सब साधन मात्र हैसाध्य नहीं। गुरु यदि साक्षात्कार कराने में सफल है तो गुरु मान्य है। अन्यथा नहीं। तत्व-दर्शन जो सूफी को अपनी आत्मा में सीधा उपलब्ध होता हैउसके लिए ऐसा प्रमाण है जिसके आगे गुरु का प्रमाण भी गौण है। गुरु की उपादेयता ज्ञान-प्राप्ति तक ही सीमित है। ज्ञान-प्राप्ति के पश्चात् सब बाह्य प्रमाण जिसमें गुरु भी सम्मिलित हैसूफी की दृष्टि में हेय है। यही कारण है कि इस्लामी शरीअत में  सम्मानित पैगम्बर को निर्णय दिवस का मध्यस्थ मानने के लिए ज्ञाननिष्ठ सूफी कभी उद्यत नही ।

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 2.3. गुरु महिमा की विशेषताएं

            प्राचीन काल से आधुनिक काल तक के लगभग सभी साहित्य में गुरु परंपरा को विशद किया है और गुरु महिमा का गान किया हैइस पर आधारित गुरु महिमा की विशेषताएं निम्न रूप में बता सकते है-

1) भगवान से  बढकर गुरु को महत्व दिया है|

2) साधक की प्रथम आवश्यकता गुरु है

3) रामानंद ब्रह्मचारी प्रधान उपासना की निस्सारता का उद्घाटन करनेवाला गुरु होता है|

4) ब्रह्म इस घट में  ही है इसका ज्ञान गुरु ही करता है

5) गुरु ही अपने शब्दों से शिष्यों को यमपाश से मुक्त करता है

6) रामानंद ने  गुरु को अंतसाधना का निर्देशकज्ञानप्रदाताकर्मबंधननिकृन्तक , कार्यसिद्धिंप्रदाता माना है|

7) कबीर के अनुसार संसार में साधक का गुरु के समान और कोई सगा नहीं |

8) गुरु ही मनुष्य को देवत्व प्रदान करता है |

9) उसी की कृपा से आनंद का दर्शन होता है

10) गुरु संसारिक दृष्टि का परिवर्तन कर अनंत (परमात्म दृष्टि को उध्दघाटित करता है

11) गुरु ही अतुलनीय रामनाम का दान करता है|

12) गुरु आनुभूतिक ज्ञान का दान करता हैअर्थात गुरु स्वयं भवसागर से उत्तीर्ण होते है तब दूसरों को उत्तीर्ण करते है|

13) गुरु के कारण ही गीविंद की प्राप्ति होती है|

14) गुरु के मिलने पर शिष्य की अपनी जातीकुलपांति आदि का कोई अस्तित्व नहीं रहता हैतथा गुरु शिष्य अभिन्न हो जाते है|

15) गुरु ही शिष्य की माया से रक्षा करता है|

16) गुरु से ही शिष्य को संचेतनानि:शंकताधैर्य आदि की प्राप्ति होती है|

17) गुरु शिष्य की परीक्षा लेता है और उसे कंचन बना देता है

18) गुरु रक्षकपरीक्षकबोधक और तारक होता है

19) गुरु के लिए आवश्यक यह हैं कि वह शिष्य का प्रत्याभिज्ञान करेउसकी योग्यतापात्रता और आवश्यकता को ढूढे और फिर अपना केकृपालु होकर उसे साधना क्षेत्र में प्रविष्ठ करे|

20) गुरु के  उपदेशों और शब्दों की जीवन में चारीतार्थता को महत्व दिया गया है | 

21) गुरु से निर्भयता और सहज की उपलब्धि होती है

22) सबसे बडे दानी गुरु ही होते हैगुरु शिष्य को जीवन का सच्चा ज्ञान प्रदान करता है। केवल शास्त्रों का ही नहींबल्कि व्यवहार और जीवन जीने की कला का भी ज्ञान देता है।

23) गुरु ही देवताअलख हैअभेद है

24) गुरु की सेवा करने से त्रिभुवन अनुकूल होता है|

25) गुरु अडसठ तीर्थों का अधिष्ठान हैइसीलिये उसे अनुपम तीर्थ कहा है|

26) अहंकार और गर्व का नाश गुरु ही करता है

27) गुरु की कृपा से ही गतिप्रातिभवदुखविस्मरण , प्रेमाधिक्य रामनामगुणगानयोगमुक्तिज्ञानशून्य समाधि उपलब्धितत्वज्ञान की प्राप्ति संभव है

28) सुंदरदास के अनुसार गुरु का चित्त सदैव ब्रह्म में लीन रहता है

29) गुरु योगज्ञान और भक्ति तीनों को प्रदान करता है

30) गुरु शिष्य की रक्षा करने में समर्थ होते है

31) गुरु को माता-पिता सबकुछ माना है

32) गुरु ही अंधकार से प्रकाश की ओर ले जानेवाला होता है

33)गुरु शिष्य के चरित्र का निर्माण करता है और उसमें नैतिकआध्यात्मिक तथा सामाजिक संस्कारों का संचार करता है।

34)गुरु को ईश्वर और शिष्य के बीच का सेतु माना गया है। उसकी कृपा से शिष्य को ईश्वर का साक्षात्कार संभव होता है।

        इस प्रकार शास्त्रोंपुराणों और संतवाणी में गुरु की महिमा का वर्णन असंख्य बार मिलता है। कबीरतुलसीनानक आदि संतों ने गुरु की वंदना को सर्वोपरि बताया है।कुल मिलाकर सभी साहित्यकारों के साहित्य में गुरु महिमा की जो विशेषताएं मिलती है उस पर आधारित यह कह सकते है कि मनुष्य के जीवन में गुरु महत्व भगवान से बढकर है ही इतना नहीं तो शिष्य का सबकुछ गुरु ही है | इसलिए कहा गया है—

"गुरु बिना ज्ञान नहींगुरु बिना मुक्ति नहीं।

1) 

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बहुविकल्पी प्रश्न         

1)       1. भारत में गुरु शिष्य परंपरा... काल से चली आ रही है।

क) मध्यकाल ख) ऐतिहासिक ग) प्राचीन घ) आधुनिक

2. मध्यकालीन संत कवियों ने अपने काव्य में ....... को सर्वोपरि माना है।

क) माता-पिता ख) गुरु ग) शिष्य घ) ईश्वर

3. कबीरदास जी के गुरु......थे।

क) रामानंद ख) विसोबा खेचर  ग) रविदास घ) नामदेव

4. संत तुलसीदास जी के गुरु का नाम .....था।

क) रामानंद ख) विसोब खेचर  ग) नरहरी दास घ) रविदास

5. कृष्णभक्त कवि सूरदास जी के गुरु के.......जी थे। 

क) वल्लभाचार्य ख) दादू दयाल ग) नरहरी दास घ) रामानंद

6. संत मीराबाई के गुरु का नाम..... था।

क) रविदास ख) रामानंद ग) नामदेव घ) कबीर

7. संत रविदास ...... के शिष्य थे।

क) रामानंद ख) कबीर ग) दादू दयाल घ) नरहरिदास

8. लोकोक्तियों के अनुसार दादू दयाल के गुरु ...... थे।

क) बुड्डून बाबा ख) कबीर ग) सहजाबाई घ) गुरु नानक

9. विसोबा खेचर के शिष्य ....थे।

क) मीराबाई ख) नामदेव ग) कबीर घ) रविदास

10. संत तुलसीदास की महत्वपूर्ण रचना....... है।

क) पद्मावत ख) सूरसागर ग) रामचरितमानस घ) गुरु ग्रंथ साहब

11. संत मुकुलदास जी के आध्यात्मिक गुरु .....है।

क) मुरार स्वामी ख) कबीर ग) दादू दयाल घ) रामानंद

12. गुरु .... दूर करनेवाला होता है।

क) अंधकार ख) गरीबी ग) अमीरी घ) प्रकाश

13. सूफी कवि .....है।

क) निर्गुणवादी ख) सगुणवादी ग) आधुनिकतावादी घ) जातिवादी

14. प्रेमाश्री शाखा में सूफी कवियों ने लौकिक प्रेम के माध्यम से..... प्रेम की व्यंजन की।

क) व्यक्तिगत ख) सामूहिक ग) लौकिक घ) अलौकिक

15. सूफी संप्रदाय में गुरु को.... कहते हैं।

क) गुरु ख) पीर ग) पैगंबर घ) स्वामी

16. मलिक मुहम्मद जायसी की प्रसिद्ध रचना..... है।

क) सूरसागर ख) रामचरितमानस घ) मधुमालती घ) पद्मावत

17. सूफी संप्रदाय में शिष्य कों ....कहते हैं।

क) मुरीद ख) गरीब ग) साधक घ) विद्यार्थी

18. जायसी के गुरु ...... थे।

क) सैयद अशरफ ख) शेख जैनुद्दीन ग) खिज्र खां घ) शेख मोहम्मद गौस

19. मुला दाऊद की महत्वपूर्ण रचना का नाम ...... है।

 क) चंदायन ख) मधुमालती घ) पद्मावत घ) चित्रावली

20. सूफी कवि 'उसमान' के गुरु ..... है।

क) हाजी बाबा ख) सैयद अशरफ ख) खिज्र खां घ) शेख मोहम्मद गौस

21. उसमान के गुरु हाजी बाबा.....संप्रदाय से आते हैं।

क) चिश्ती ख) सुहारवर्दी ग) कादरी घ) नक्शबंदी

22. अमीर खुसरो के गुरु का नाम ...... है।

क) हजरत निजामुद्दीन औलिया ख) बाबा हाजी ख) सैयद अशरफ घ) खिज्र खां

23.  ......गुरु महिमा की विशेषताऍं हैं।

क) समर्पण ख) ज्ञान का स्रोत क) मोक्ष के उद्धारक घ) उपर्युक्त सभी

24. गुरु .... होता है।

क) सच्चा मार्गदर्शक ख) स्वार्थी ग) कृतघ्न घ) ठगनेवाला

25. गुरु शिष्य का...... विकास भी करता है।

क) आर्थिक ख) धार्मिक ग) शैक्षिक घ) आध्यात्मिक

26) ब्रह्म रूप प्रकाश किसे माना गया है

   अ) संत     ब) गुरु     क) शिष्य     ड) भक्त 

27) किसका स्थान ईश्वर से भी ऊपर स्वीकार किया गया है

   अ) आत्मा     ब) गुरु     क) जीव     ड) भक्त 

28) गुरु को ईश्वर से भी अधिक महत्व देना किन कवियों की एक सर्वमान्य विशेषता है

   अ) संत     ब) जैन     क) शृंगारी    ड) नाथ

29) भारतीय संस्कृति में किसे प्रथम गुरु के रूप में मान्यता दी गई है?

   अ) ब्रह्मा     ब) विष्णु     क) महादेव     ड) दत्तात्रेय 

30) गुरु-शिष्य परंपरा को किस व्यवस्था ने जीवित रखा

   अ) गुरुकुल      ब) भक्ति कुल        क) वेद कुल     ड) भक्त कुल 

31) गुरु-शिष्य परंपरा का सर्वोत्तम उदाहरण किसे माना जाता है

   अ) पुराण को      ब) वेद को     क) उपनिषद को    ड) महाभारत को

32) ज्ञान प्राप्त करने के लिए गुरु के पास जाने का विधिवत मार्ग किस में बताया गया है

   अ) प्रश्नोपनिषद     ब) उपनिषद     क) मनुस्मृति     ड) मुंडकोपनिषद

33) शीश देकर भी गुरु की प्राप्ति कौन करना चाहते हैं

   अ) रविदास     ब) दादू दयाल     क) कबीर      ड) रामानंद 

34) निर्गुण भक्त संतों ने किसे सर्वोपरि माना है

   अ) भक्ति को   ब) परमात्मा को      क) ज्ञान को      ड) गुरु को 

35) शंकराचार्य किस गुरु परंपरा के आचार्य हैं

     अ) अद्वैत     ब) द्वैत     क) दर्शन     ड) वेद  

36) भारतीय संस्कृति और साहित्य का स्वर्णिम युग किसे माना जाता है

   अ) आदिकाल को     ब) रीतिकाल को     क) भक्तिकाल को     ड) आधुनिक काल को

37) भक्ति की लहर को उत्तर भारत में प्रवाहित करने में किसने महत्वपूर्ण योगदान दिया है

   अ) रामानंद     ब) कबीर     क) रामानुज     ड) दादू दयाल

38) कबीर ने किसे अपना गुरु माना था

   अ) राघवानंद     ब) रामानंद     क) नरहरिदास     ड) वल्लभाचार्य

39) दादू दयाल किस शाखा के प्रसिद्ध कवि है

   अ) ज्ञानाश्रयी     ब) प्रेमाश्रयी     क) कृष्ण भक्ति      ड) राम भक्ति

40) तुलसीदास को ‘रामचरितमानस’ की रचना के लिए किसने प्रेरित किया

   अ) राघवानंद     ब) रामानंद     क) नरहरिदास     ड) वल्लभाचार्य

41) सूरदास को कृष्ण भक्ति का मार्ग किसने दिखाया?

   अ) राघवानंद     ब) रामानंद     क) नरहरिदास     ड) वल्लभाचार्य

42) मीराबाई किसकी शिष्या थी?

   अ) रविदास     ब) रामानंद     क) नरहरिदास     ड) वल्लभाचार्य

43) 'पायो जी मैंने राम रतन धन पायो' किसकी काव्य पंक्ति है?

   अ) कबीर     ब) सूरदास     क) मीराबाई      ड) तुलसीदास 

44) व्यक्ति का भविष्य गुरु ही संवार सकता है’ ऐसा किसने कहा है?

   अ) राघवानंद     ब) आचार्य चाणक्य     क) नरहरिदास     ड) वल्लभाचार्य

45) किसके जन्मोत्सव को गुरु पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता है

   अ) वेद व्यास     ब) रामानंद     क) शंकराचार्य     ड) वल्लभाचार्य

46) भक्ति काल को 'स्वर्ण काल' किसने कहा है

   अ) जॉर्ज ग्रियर्सन                    ब) आ. रामचंद्र शुक्ल

     क) आ. हजारी प्रसाद द्विवेदी    ड) आ. नंददुलारे वाजपेयी 

47) पुष्टिमार्ग की स्थापना किसने की

   अ) सूरदास    ब) वल्लभाचार्य     क)  नंददास     ड) शंकराचार्य

48) भक्ति परंपरा की मुख्यत: कितनी धाराएँ हैं

   अ) दो     ब) चार     क) छ:     ड) आठ 

49) कबीर किस शाखा के प्रमुख कवि हैं

   अ) ज्ञानाश्रयी     ब) प्रेमाश्रयी     क) राम भक्ति     ड) कृष्ण भक्ति

50) सूफी मत से कौन-सी काव्य धारा प्रभावित है

   अ) ज्ञानाश्रयी     ब) प्रेमाश्रयी     क) राम भक्ति      ड) कृष्ण भक्ति 

 

ब) नीचे दिए गए प्रश्नों के विकल्पों में से सही विकल्प चुनकर रिक्त स्थानों की पूर्ति

   कीजिए  ।

1) भारतीय संस्कृति में ------- को बहुत ही आदर का स्थान प्राप्त है ।

   अ) गुरु     ब) भक्त     क) संत     ड) शिष्य 

2) ------- शब्द का अर्थ है -ज्ञान प्राप्ति के लिए गुरु के पास जाना ।

   अ) वेद     ब) उपनिषद    क) कठोपनिषद     ड) प्रश्नोपनिषद

3) कबीर को ------- के सानिध्य में जीवन दर्शन की प्राप्ति हुई। 

   अ) रामानंद     ब) रामानुजाचार्य     क) गुरु नानक     ड) दादू दयाल 

4) ------- में गुरु को ईश्वर का रुप माना है। 

   अ) वेदों      ब) पुराणों     क) अध्यात्म     ड) दर्शन 

5) रामानंद ------- के शिष्य थें ।

   अ) शंकराचार्य     ब) राघवानंद    क) निम्बार्क      ड) नरहरीदास 

6) दादू पंथ की स्थापना ------- ने की ।

   अ) शंकराचार्य     ब) दादू दयाल     क) कबीर       ड) वृद्धानंद 

7) गोस्वामी तुलसीदास ------- के शिष्य थें ।

   अ) शंकराचार्य     ब) राघवानंद    क) निम्बार्क     ड) नरहरीदास

8) 'सूरसागर' ------ की प्रसिद्ध रचना है। 

   अ) शंकराचार्य     ब) सूरदास     क) तुलसीदास     ड) नरहरीदास

9) मीराबाई ------- सदी की एक महान कृष्ण भक्त कवयित्री है। 

   अ) 14 वीं     ब) 15 वीं     क) 16 वीं    ड) 17 वीं

10) भारतीय समाज के नैतिक और आध्यात्मिक विकास में ------- परंपरा ने महत्वपूर्ण  

      भूमिका निभाई है ।

   अ) गुरु-शिष्य     ब)  भक्त कवि    क) संत कवि     ड) आध्यात्म दर्शन 

11) भक्ति कालीन काव्य में ------- के बिना किसी भी प्रकार के ज्ञान की कल्पना करना

    असंभव था ।

   अ) कवि     ब) संत     क) भक्त      ड) गुरु 

12) प्रेमाश्रयी शाखा के कवियों के केंद्र में ------- है। 

   अ) दर्शन     ब) प्रेम     क) ज्ञान     ड) भक्ति 

13) ------- काव्य की मुक्तक रचनाएँ अधिक पाई जाती है। 

   अ) ज्ञानाश्रयी     ब) प्रेमाश्रयी     क) राम भक्ति     ड) कृष्ण भक्ति

14) ‘रामचरितमानस’ में श्रीराम जी का -------- रूप में चित्रण हुआ है |

   अ) लोकरंजन     ब) लोकमंगलकारी     क)  लोकहित वादी     ड) लोक गुणकारी

15) वात्सल्य रस का बहुत ही सुंदर वर्णन --------- ने किया है |

   अ) सूरदास     ब) तुलसीदास     क) रविदास     ड) नंददास

16) भारत एक राष्ट्र हैतो भारत में जो कुछ साहित्य (चाहे किसी भी भाषा में) लिखा जाता रहा हैवह भारतीय साहित्य है

      17)  भारतीय में जुडा साहित्य शब्द ही उसकी एकता का प्रतिक है|     18) भारतीय साहित्य की अवधारणा के निर्माण में योगदान देनेवाले पहले प्रमुख चिंतक श्रीअरविंद थे|                                                 

         19)  भारतीय साहित्य का मूल स्वर अध्यात्मिक रहा है|  

 


 


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